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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
बहुत लम्बे समय तक यह अवधारणा रही कि मस्तिष्क ही मनुष्य की चैतन्य-ऊर्जा का स्रोत है तथा वही समस्त भावावेगों की उत्पत्ति स्थान है। अन्तःस्रावी ग्रन्थि-शास्त्र (विज्ञान की यह शाखा, जो अन्तःस्रावी ग्रन्थि- संस्थान का अध्ययन करती है) के क्षेत्र में पिछले वर्षों में हुई उल्लेखनीय प्रगति ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे सारे भावावेश और भावावेग-वृत्तियां और वासनाएं हमारे अन्तःस्रावी ग्रन्थि - तन्त्र की ही अभिव्यक्तियां हैं।
मनुष्य की जितनी आदतें बनती हैं, उनका उद्गम स्थान है - ग्रन्थितन्त्र | नाड़ी तंत्र में हमारी सारी वृत्तियां अभिव्यक्त होती हैं, अनुभव में आती हैं और फिर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार, अनुभव या अभिव्यक्तिकरण-ये सब नाड़ी-तन्त्र के काम हैं, किन्तु आदतों का जन्म, आदतों की उत्पत्ति ग्रन्थि-तन्त्र में होती है। वे ही आदतें मस्तिष्क के पास पहुंचती हैं, अभिव्यक्ति होती हैं और व्यवहार में उतरती हैं। '
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अन्तःस्रावी ग्रन्थि-तन्त्र और नाड़ी - तन्त्र का अन्योन्य सम्बन्ध निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट हो सकता है- किसी युवक के सामने कोई सुन्दर युवती उपस्थित होती है। उसके सामने आते ही उसके नाड़ी तंत्रीय संवेदन (चाक्षुष संवेदन) विद्युत् आवेग के द्वारा उसके मस्तिष्क में रहे हुए केन्द्र - हाइपोथेलेमस ( अवचेतक) के अमुक भाग को उत्तेजित करेंगे, उसके परिणामस्वरूप हाइपोथेलेमस पिच्यूटरी ग्रन्थि के अग्रभाग को सक्रिय करेगा। अब पिच्यूटरी की बारी आती है वह अपनी ओर से काम-ग्रन्थियों (गोनाड्स) को गोनोडोट्रोफीन नामक हार्मोन भेजकर उन्हें सक्रिय करती है। तब उस युवक की काम-ग्रन्थियां अपने लैंगिक हार्मोन - एन्ड्रोजन का स्राव करती हैं, जो रक्त के माध्यम से मस्तिष्क में पहुंचकर नाड़ी तन्त्र को प्रभावित करता है। उसके फलस्वरूप हृदय और नब्ज की गति में वृद्धि हो जाती है, रक्तचाप बढ़ जाता है, मांसपेशियों में तनाव पैदा हो जाता है और काम-भावना उद्दीप्त हो जाती है।
१. जब किसी पुरुष को समारोह या पार्टी में शामिल होना होता है, जहां महिलाओं की उपस्थिति भी होती है, तब उस स्थल पर पहुंचने पर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को प्रभाव पूर्ण बनाने के लिए कुछ क्रियाएं करता है, जैसे अपनी वेशभूषा को थोड़ा संवार लेना, टाई को ठीक-ठाक कर लेना, बालों को कंघी या हाथ से संवार लेना आदि । ये क्रियाएं व्यक्ति प्राय: ओटोमेटिक (अनालोचित या यंत्रवत् ) कर लेता है। इसमें चेतन मन का प्रायः कोई भाग नहीं होता । वस्तुतः यह सारी क्रिया पिच्यूटरी द्वारा स्रावित गोनाडोट्रोफीन नामक हार्मोन के कारण होती है।
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