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तु लब्ध्युपयोगात्मकम्। तत्राऽऽवरणक्षयोपशमप्राप्तिरूपार्थग्रहणशक्तिर्लब्धिः, तदभावे सतोप्यर्थस्याप्रकाशनात्, अन्यथातिप्रसङ्गः। उपयोगस्तु रूपादिविषयग्रहणव्यापारः, विषयान्तरासक्ते चेतसि सन्निहितस्यापि विषयस्याग्रहणान्तसिद्धिः। जो निवृत्ति का उपकार करे वह उपकरण कहलाता है।'
यौग दार्शनिकों का कहना है कि न्याय-वैशेषिक दर्शन ने इन्द्रियों में पृथक्-पृथक् पृथिवी आदि पदार्थ से उत्पन्न होने की कल्पना की है, अर्थात् पृथिवी द्रव्य से घ्राणेन्द्रिय की उत्पत्ति की कल्पना की है, जलद्रव्य से रसनेन्द्रिय की, अग्निद्रव्य से चक्षु इन्द्रिय की, वायुद्रव्य से स्पर्शनेन्द्रिय की और आकाश द्रव्य से कर्णेन्द्रिय की उत्पत्ति की कल्पना की है। इसका समाधान यह है कि एक आकाश को छोड़कर पृथिवी आदि चारों पदार्थ एक ही पुद्गल द्रव्यात्मक हैं, इनकी कोई भिन्न जातियाँ नहीं हैं और न इनके परमाणु ही अलग-अलग हैं।
दूसरी बात इन्द्रियों में भी इसी एक पृथिवी से ही यह घ्राणेन्द्रिय निर्मित है- ऐसा नियम नहीं है। सारी ही द्रव्येन्द्रियाँ एक पुद्गल द्रव्य रूप हैं। पृथिवी आदि पदार्थ साक्षात् ही एक द्रव्यात्मक-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णात्मक दिखायी दे रहे हैं। न ये भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं और न ये भिन्न-भिन्न जाति वाले परमाणुओं से निष्पन्न हैं तथा न इन्द्रियों की रचना भी किसी एक निश्चित पृथिवी आदि से ही हुयी है। अतः यौग का इन्द्रियों का कथन निर्दोष नहीं है।
जैनदर्शन के अनुसार भावेन्द्रिय के दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग। ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से पदार्थ को ग्रहण करने की अर्थात् जानने की शक्ति का होना लब्धि कहलाता है। आवरण कर्म के क्षयोपशम को लब्धि समझना चाहिए। इसी लब्धि (क्षयोपशम) के अभाव में मौजूद पदार्थ का भी जानना नहीं होता है। यदि इस लब्धि के बिना भी पदार्थ का जानना होता है- ऐसा माना जाये तो चाहे जो पदार्थ इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होने लगेंगे। फिर इसमें अति प्रसङ्ग दोष आयेगा।
रूपादि विषयों की तरफ आत्मा का उन्मुख होना उपयोग रूप भावेन्द्रिय है। यह उपयोग यदि अन्यत्र है तो निकटवर्ती पदार्थ भी जानने 58:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः