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________________ 2/4 प्रत्यक्षताप्रसङ्गात् प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणं स्यात् । विशदत्वविमर्श: 9. ननु किमिदं ज्ञानस्य वैशद्यं नामेत्याह अव्यवधानेनेत्यादि । प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥4॥ 10. तुल्यजातीयापेक्षया च व्यवधानमव्यवधानं वा प्रतिपत्तव्यं न पुनर्देशकालाद्यपेक्षया । यथा उपर्युपरि स्वर्गपटलानि' इत्यन्त्रान्योन्यं तेषां और अनुमान ऐसे दो प्रमाणों की मान्यता नहीं बनती है। इस प्रकार की मान्यता में तो एक प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध होता है, फिर प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण जो कि बौद्ध ने मान्य किये हैं वे संगत नहीं बैठते । प्रत्यक्षप्रमाण के लक्षण में विशद विशेषण का तात्पर्य प्रश्न होता है कि ज्ञान में विशदता क्या चीज होती है? इसे स्पष्ट करने के लिए आचार्य माणिक्यनन्दि अगला सूत्र कहते हैंप्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥4॥ सूत्रार्थ दूसरे ज्ञान के व्यवधान से रहित और विशेषता से होने वाले प्रतिभास को वैशद्य कहते हैं। 10. आचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि अन्य ज्ञानों का जिसमें व्यवधान न पड़े ऐसा जो विशेष आकारादि का जो प्रतिभास होता है, वही वैशद्य है। यहाँ जो प्रतीत्यन्तर से व्यवधान नहीं होना कहा है वह तुल्यजातीय की अपेक्षा से व्यवधान का निषेध करने के लिए कहा है। देश काल आदि की अपेक्षा से नहीं। जैसे- ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल होते हैं इसमें वे स्वर्ग के पटल परस्पर के देश व्यवधान से स्थित हैं किन्तु तुल्य जातीय अन्य पटलों की अपेक्षा वे अन्तरित नहीं हैं। अर्थात् स्वर्ग में एक पटल के बाद दूसरा पटल है, बीच में कोई रचना नहीं है, किन्तु ये पटल अन्तराल लिये हुए तो होते ही हैं उसी प्रकार जिस ज्ञान में अन्य तुल्यजातीय ज्ञान का व्यवधान नहीं है- ऐसे प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः: 53
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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