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47. अथ करणत्वेन प्रतीयमानं ज्ञानं करणमेव न प्रत्यक्षम्; तदन्यत्रापि समानम्। किञ्च, आत्मनः प्रत्यक्षत्वे परोक्षज्ञानकल्पनया कि साध्यम्? तस्यैव स्वरूपवद् बाह्यार्थग्राहकत्वप्रसिद्धः?
___48. कर्तुः करणमन्तरेण क्रियायां व्यापारासम्भवात्करणभूतपरोक्षज्ञानकल्पना नानर्थिकेत्यप्यसाधीयः; मनसश्चक्षुरादेश्चान्तर्बहिःकरणस्य सद्भावात् ततोऽस्य विशेषाभावाच्च। अनयोरचेतनत्वात्प्रधानं चेतनं करणमित्यप्यसमीचीनम्; भावेन्द्रियमनसोश्चेतनत्वात्। तत्परोक्षत्वसाधने च सिद्धसाधनम्: स्वार्थग्रहणशक्तिलक्षणाया लब्धेर्मनसश्च भावकरणस्य छद्मस्थाप्रत्यक्षत्वात्।
47. शंका- ऐसा ज्ञान जो करण रूप प्रतीत होता है, वह करण ही रहेगा प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा।
समाधान- तब यह बात तो कर्ता में भी लागू होगी- अर्थात् कर्तृत्वरूप से प्रतीत हुई आत्मा कर्ता ही कहलायेगा वह प्रत्यक्ष नहीं हो पायेगा, इस प्रकार आत्मा के विषय में भी मानना पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि मीमांसक आत्मा को प्रत्यक्ष होना मानते हैं फिर ज्ञान को ही परोक्ष क्यों बतलाते है? यह भी एक बड़ी विचित्र बात है? क्योंकि जैसे स्वयं आत्मा ही अपने स्वरूप का ग्राहक होता है वैसे ही वह बाह्य पदार्थों का भी ग्राहक होता है। यह बात प्रसिद्ध है ही। अर्थात् आत्मा ही बाह्य पदार्थों को जानते समय करण रूप हो जाता है।
48. मीमांसक कहते हैं कि कर्ता को कारण के बिना क्रिया में व्यापार करना शक्य नहीं है, अत: करणभूत परोक्षज्ञान की कल्पना करना व्यर्थ नहीं है।
इस बात पर जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसकों का यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि कर्त्ताभूत आत्मा का करण तो मन और इन्द्रियाँ हुआ करती हैं। अन्त:करण तो मन है और बहिःकरण स्वरूप स्पर्शनादि इन्द्रियाँ हैं। मीमांसक के उस परोक्षभूत ज्ञानकरण से इन कारणों में तो भिन्नता नहीं है; अर्थात् यदि आपको परोक्ष स्वभाव वाला ही करण मानना है तो मन आदि परोक्षभूत करण हैं ही। 40:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः