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तावत्प्रत्यक्षेण; उभयरूपग्रहणे ह्यन्वयनिश्चयः, न च ज्ञातृव्यापारस्वरूपं प्रत्यक्षेण निश्चीयते इत्युक्तम्। तदभावे च-न तत्प्रतिबद्धत्वेनार्थप्रकाशनलक्षणहेतुरूपमिति।
21. नाप्यनुमानेन। अस्य निश्चितान्वयहेतुप्रभवत्वाभ्युपगमात्। न च तस्यान्वयनिश्चयः प्रत्यक्षसमधिगम्यः पूर्वोक्तदोषानुषङ्गात्। नाप्यनुमानगम्यः; तदनन्तर प्रथमानुमानाभ्यां तन्निश्चयेऽनवस्थेतरेतराश्रयानुषङ्गात्।
22. नापि व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण; व्यतिरेको हि साध्याभावे हेतोरभावः। न च प्रकृतसाध्याभावः प्रत्यक्षाधिगम्यः, तस्य ज्ञातृव्यापाराविषयत्वेन द्वारा होता है या व्यतिरेक निश्चय के द्वारा? यदि इस सम्बन्ध का निर्णय अन्वय निश्चय के द्वारा होता है अर्थात् जहाँ जहाँ ज्ञाता का व्यापार है वहाँ वहाँ अर्थ प्रकाशन है। तब प्रश्न उठता है कि इस प्रकार के अन्वय का निश्चय करता कौन है? प्रत्यक्ष या अनुमान? चूँकि ज्ञाता का व्यापार प्रत्यक्ष नहीं होता-यह पहिले ही कहा जा चुका है अतः साध्य-साधन दोनों के ग्रहण न कर पाने से प्रत्यक्ष ऐसे अन्वय का निश्चय नहीं कर पाता है और प्रत्यक्ष के अभाव में वह उसके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले अर्थ प्रकाशन को कैसे जान सकता है?
21. अनुमान से भी दोनों के अन्वय का निश्चय नहीं होता है। क्योंकि यह अनुमान निश्चित अन्वय रूप हेतु से उत्पन्न होगा। अन्वय जानने के लिए जो अनुमान है वह भी तो अन्वय सहित है अतः उस अन्वय के निश्चय के लिए वह उपरोक्त दोष पुनः उपस्थित होने लगेंगे। अर्थात् अन्वय प्रत्यक्ष से जाना नहीं जाता, अनुमान के द्वारा जानना माने तो कौन-से अनुमान से? प्रकृत अनुमान से या अनुमानान्तर से? अनुमानान्तर से मानने पर अनवस्था और प्रकृत (प्रथम) अनुमान से मानने पर इतरेतराश्रय दोष आता है।
22. ज्ञाता का व्यापार और अर्थतथात्व प्रकाशन इनका अविनाभाव सम्बन्ध व्यतिरेक निश्चय के द्वारा भी नहीं होता है। व्यतिरेक उसे कहते हैं कि जहाँ साध्य के अभाव में हेतु का अभाव दिखाया जाय, किन्तु यहाँ ज्ञाता का व्यापार रूप जो साध्य है वह प्रत्यक्षगम्य नहीं है, क्योंकि 24:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः