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________________ (v) रूप में पढ़ाना संभव नहीं बन पाता। इसी मुश्किल के चलते अनेक विश्वविद्यालयों में इसे पाठ्यक्रम से अलग भी कर दिया। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापन की यह स्थिति देखकर मन में बहुत कष्ट होता था और लगता था इतने उत्कृष्ट ग्रन्थ के अध्ययन की परम्परा ही समाप्त न हो जाए। तभी से मन में इस कल्पना ने जन्म लेना प्रारम्भ कर दिया कि इस समस्या के समाधान के लिए कुछ तो करना है। स्वर्गीय महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य जी ने इस ग्रन्थ के मूलभाग को पाठान्तरों के साथ सम्पादन करके बहुत बड़ा उपकार किया था, जो सन् 1941 में निर्णय सागर प्रेस, मुम्बई से प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ में हिन्दी अनुवाद न होने से यह ग्रन्थ सिर्फ विद्वानों के लिए पठनीय था। बाद में पूज्य आर्यिका जिनमती जी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया जो तीन भागों में प्रकाशित हुआ। यह ग्रन्थ बहुत बृहद्काय होने से पठन-पाठन से दूर होने लगा। इस बीच इस ग्रन्थ का प्रो. उदयचन्द जैन जी कृत 'प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन' सरल, सुगम्य तथा सारभूत विवेचन हिन्दी भाषा में एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ, जिसने पूर्वोक्त समस्या का काफी समाधान किया, किन्तु इस ग्रन्थ में आचार्य प्रभाचन्द्र का संस्कृत में मूल ग्रन्थ का हार्द न होने से विद्यार्थियों को मूल पंक्ति पाठ के अनभ्यास की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। इन पूर्वोक्त सभी समस्याओं का आकलन करके संस्कृत मूल ग्रन्थ के हार्द को सुरक्षित रखते हुए उनके समाधान के लिए प्रमेयकमलमार्तण्ड सम्पूर्ण मूल ग्रन्थ का सार-संक्षेप और अनुवाद, विशेषार्थ सहित प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास इस रूप में किया है। यह कार्य काफी पूर्व सन् 2004 में प्रारम्भ कर दिया था, इसे तैयार करते-करते अब प्रकाशित रूप में आप सभी के समक्ष आ रहा है, इससे मैं अपने भीतर अन्तस्तोष और प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। प्रस्तुत ग्रन्थ को निम्नलिखित प्रमुख विशेषताओं से संयुक्त करने का प्रयास किया है (1) परीक्षामुखसूत्र के सभी सूत्रों पर आचार्य प्रभाचन्द्र की टीका
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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