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11. तद्धेतुत्वात्सन्निकर्षादेरपि प्रामाण्यम्, इत्यप्यसमीचीनम्; छिदिक्रियायां करणभूतकुठारस्य हेतुत्वादयस्कारादेरपि प्रामाण्यप्रसङ्गात्। उपचारमात्रेणाऽस्य प्रामाण्ये च आत्मादेरपि तत्प्रसङ्गस्तद्धेतुत्वाविशेषात्। इन्द्रियवृत्तिसमीक्षा
12. एतेनेन्द्रियवृत्तिः प्रमाणमित्यभिदधानः साङ्ख्यः प्रत्याख्यातः ज्ञानस्वभावमुख्यप्रमाणकरणत्वात् तत्राप्युपचारतः प्रमाणव्यवहाराभ्युपगमात्। न चेन्द्रियेभ्यो वृत्तिर्व्यतिरिक्ता, अव्यतिरिक्ता वा घटते। तेभ्यो हि यद्यव्यतिरिक्तासौ; तदा श्रोत्रादिमात्रमेवासौ तच्च सुप्ताद्यवस्थायामप्यस्तीति तदाप्यर्थपरिच्छित्तिप्रसक्तेः सुप्तादिव्यवहारोच्छेदः।
11. वैशेषिक- उस प्रमाण का सहायक सन्निकर्ष है इसलिए उसे भी प्रमाण मान लेना चाहिए।
जैन- ऐसा कहना समीचीन नहीं है क्योंकि यदि ऐसा मान लेंगे तो छेदन में साधकतम कुठार के साथ-साथ बढ़ई को भी प्रमाण मानने का प्रसङ्ग प्राप्त होगा। यदि सन्निकर्षादि को उपचार से प्रमाण मान लें तो आत्मादिक को भी प्रमाण मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी सन्निकर्षादि की तरह ज्ञान की उत्पत्ति में हेतु हैं। इन्द्रियवृत्तिसमीक्षा
12. सांख्यदर्शन इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण मानता है। जिस प्रकार नैयायिकों के सन्निकर्ष का खण्डन हमने किया है उसी प्रकार सांख्य के इन्द्रियवृत्ति का भी खण्डन मान लेना चाहिए। इन्द्रियवृत्ति को उपचार से भले ही प्रमाण स्वीकार किया जा सकता है किन्तु वास्तव में ज्ञान स्वभाव वाली वस्तु ही मुख्य प्रमाण है। सांख्यदर्शन से प्रश्न करते हुये आचार्य उनसे पूछते हैं कि आप हमें यह बतलाइये कि इन्द्रियों की जो वृत्ति है वह इन्द्रियों से भिन्न है या अभिन्न है? यदि वह वृत्ति इन्द्रियों से अभिन्न है तो वह इन्द्रिय रूप ही हो गई। ये इन्द्रियाँ तो निद्रा अवस्था में भी रहती हैं, तब फिर वहाँ भी ज्ञान होता रहेगा? इस स्थिति में यह सोया हुआ है और यह जागा हुआ है यह लोकव्यवहार ही नहीं बन पायेगा।
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 19