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________________ प्रथमपरिच्छेदः 2. तत्र प्रकरणस्य सम्बन्धाभिधेयरहितत्वाशङ्कापनोदार्थं तदभिधेयस्य चाऽप्रयोजनवत्त्वपरिहारानभिमतप्रयोजनवत्त्वव्युदासाशक्यानुष्ठानत्वनिराकरणदक्षमक्षुण्णसकलशास्त्रार्थसंग्रहसमर्थं 'प्रमाण' इत्यादि श्लोकमाह प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः। इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः॥1॥ 3. सम्बन्धाभिधेयशक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनवन्ति हि शास्त्राणि प्रेक्षावद्भिराद्रियन्ते नेतराणि-सम्बन्धाभिधेयरहितस्योन्मत्तादिवाक्यवत्; तद्वतोऽप्यप्रयोजनवतः काकदन्तपरीक्षावत; अनभिमतप्रयोजनवतो वा मातृविवाहोपदेशवत्; अशक्यानुष्ठानस्य वा सर्वज्वरहरतक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशवत् तैरनादरणीयत्वात्। प्रथमपरिच्छेद 2. शास्त्र के प्रारम्भ में यह शंकायें हो सकती हैं कि यह शास्त्र सम्बन्धाभिधेय से रहित तो नहीं है? या फिर अप्रयोजनभूत, अनिष्टप्रयोजनयुक्त तथा अशक्यानुष्ठान तो नहीं है? इस प्रकार की सभी शंकाओं को दूर करने में समर्थ तथा सम्पूर्ण शास्त्र के अर्थ को संग्रह करने में समर्थ ऐसे प्रथम श्लोक को आचार्य मणिक्यनन्दी कहते हैं प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः। इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः॥1॥ अर्थ-प्रमाण अर्थात् सम्यक् ज्ञान से अभीष्ट अर्थ की सम्यक् प्रकार से सिद्धि होती है और प्रमाणाभास अर्थात् मिथ्याज्ञान से इष्ट वस्तु की संसिद्धि नहीं होती है, इसलिए मैं प्रमाण और प्रमाणाभास का पूर्वाचार्य प्रसिद्ध एवं पूर्वापर-दोष से रहित संक्षिप्त लक्षण लघुजनों (अर्थात् अल्पबुद्धि वालों) के हितार्थ कहूँगा॥ 3. बुद्धिमान् लोग उसी शास्त्र का आदर करते हैं जो सम्बन्ध भिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन से युक्त है, अन्य इससे रहित शास्त्र का कहीं भी आदर उसी प्रकार नहीं होता है जैसा कि किसी उन्मत्त पुरुष के सम्बन्ध रहित वाक्य का आदर नहीं होता है। इसके बाद यदि शास्त्र सम्बन्ध सहित भी हो, अप्रयोजनभूत हों तो कौओ के दांत की 4:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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