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________________ अजडमदोषं दृष्ट्वा मित्रं सुश्रीकमुद्यतमतुष्यत्। विपरीतबन्धुसङ्गतिमुगिरति हि कुवलयं किं न॥5॥ 1. श्रीमदकलङ्कार्थोऽव्युत्पन्नप्रज्ञैरवगन्तुं न शक्यत इति तद्व्युत्पादनाय करतलामलकवत् तदर्थमुद्धृत्य प्रतिपादयितुकामस्तत्परिज्ञानानुग्रहेच्छाप्रेरितस्तदर्थप्रतिपादनप्रवणं प्रकरणमिदमाचार्यः प्राह। अर्थात् करता ही है|4॥ अर्थ-अजड़, निर्दोष, शोभायुक्त ऐसे मित्र को देखकर क्या जगत् के जीव विपरीत संगति को नहीं छोड़ते हैं? अथवा, सूर्य की दृष्टि से देखें-जो अजल-जल से नहीं हुआ, निर्दोष-रात्रि से युक्त नहीं है, तेजयुक्त है ऐसे सूर्य के उदय को देखकर भी कुवलय-रात्रि विकासी कमल अपनी विपरीत बन्धु अर्थात् चन्द्रमा की सङ्गति को नहीं बतलाया है क्या? अर्थात् सूर्य उदित होने पर भी कुमुद सन्तुष्ट नहीं हुआ तो मालूम पड़ता है कि इस कुमुद ने सूर्य के विपक्षी चन्द्र की संगति की है, इसी प्रकार सज्जन के साथ कोई व्यक्ति दुष्टता या ईर्ष्या करे तो मालूम होता है कि इसने दुष्ट की संगति की है।।5॥ 1. आचार्य अकलंक द्वारा रचित ग्रन्थों का अर्थ सामान्य बुद्धि के लोग समझ नहीं पाते हैं अतः उन्हें वह अर्थ समझ में आ जाय इसलिए तथा उनकी बुद्धि विकसित करने के लिए हाथ में रखे हुये आँवले के समान स्पष्ट रूप से उन्हीं आचार्य अकलंकदेव के अर्थ को लेकर प्रतिपादन करने की इच्छा को रखने वाले, उनके न्याय-ग्रन्थों का विशेष ज्ञान तथा शिष्यों पर उपकार करने की इच्छा से प्रेरित होकर, आचार्य अकलंकदेव के न्यायग्रन्थ के अर्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ आचार्य माणिक्यनन्दि इस प्रकरण को अर्थात् 'परीक्षामुखसूत्र' ग्रन्थ को कहते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 3
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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