________________ 7/1 इति। 'शुक्लो नीलः' इति गुणशब्दा अपि क्रियाशब्दा एव, 'शुचिभवनाच्छुक्लो नीलनान्नीलः' इति। 'देवदत्तो यज्ञदत्तः' इति यदृच्छाशब्दा अपि क्रियाशब्दा एव, 'देवा एनं देयासुः' इति देवदत्तः, 'यज्ञे एनं देयात्' इति यज्ञदत्तः। तथा संयोगिसमवायिद्रव्यशब्दाः क्रियाशब्दाः एव, दण्डोस्यास्तीति दण्डी, विषाणमस्यास्तीति विषाणीति। पञ्चतयी तु शब्दानां प्रवृत्तिर्व्यवहारमात्रान्न निश्चयात्। __17. एवमेते शब्दसमभिरूढवम्भूतनयाः सापेक्षाः सम्यग्, अन्योन्यमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपत्तव्यम्। एतेषु न नयेषु ऋजुसूत्रान्ताश्चत्वारोर्थप्रधानाः शेषास्तु त्रयः शब्दप्रधानाः प्रत्येतव्याः। है, नील क्रिया से परिणत नील है इत्यादि। देवदत्तः, यज्ञदत्तः इत्यादि यद्वच्छा शब्द [इच्छानुसार प्रवृत्त हुए शब्द] भी एंवभूतनय की दृष्टि में क्रियावाचक ही हैं। देवाः एनं देवासुः इति देवदत्तः यज्ञे एनं देयात् इति यज्ञदत्तः, देवगण इसको देवे, देवों ने इसको दिया है वह देवदत्त कहलाता है और यज्ञ में इसको देना वह यज्ञदत्त कहलाता है। तथा संयोगी समवायी द्रव्यवाचक शब्द भी क्रियावाचक है, जैसे दण्ड जिसके है वह दंडी है, विषाण [सींग] जिसके है वह विषाणी है। जाति, क्रिया, गुण, यदृच्छा और सम्बन्ध इस प्रकार पाँच प्रकार की शब्दों की प्रवृत्ति जो मानी है वह केवल व्यवहार रूप है निश्चय से नहीं। अर्थात् उपर्युक्त उदाहरणों से एवंभूतनय की दृष्टि से निश्चित किया कि कोई भी शब्द फिर उसे व्यवहार से जातिवाचक कहो या गुणवाचक कहो सबके सब शब्द क्रियावाचक ही हैं- क्रिया के द्योतक ही हैं। ___ 17. ये शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय परस्पर में सापेक्ष हैं तो सम्यग्नय कहलाते हैं यदि परस्पर में निरपेक्ष है तो मिथ्यानय कहलाते हैं- ऐसा समझना चाहिये। [नैगमादि सातो नय परस्पर सापेक्ष होने पर ही सम्यग्नय है अन्यथा मिथ्यानय हैं] इन सात नयों में नैगम, संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थ प्रधान नय हैं और शेष तीन शब्द, समभिरूढ और एवंभूतनय शब्द प्रधान नय प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 317