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________________ 6/73 अपक्षपतिताः प्राज्ञाः सिद्धान्तद्वयवेदिनः। असद्वादनिषेद्धारः प्राश्निकाः प्रग्रहा इव। इत्येवंविधप्राश्निकांश्च विना को नाम नियामक: स्यात्? प्रमाणतदाभासपरिज्ञानसामोपेतवादिप्रतिवादिभ्यां च विना कथं वादः प्रवर्तेत? तथा अपक्षपाती, प्राज्ञ, वादी प्रतिवादी दोनों के सिद्धान्त को जानने वाले असत्यवाद का निषेध करने वाले ऐसे प्राश्निक-सभ्य हुआ करते हैं जो बैलगाड़ी को चलाने वाले गाड़ीवान जैसे बैलों को नियन्त्रण में रखते हैं वैसे ही वे वादी प्रतिवादी को नियन्त्रण में रखते हैं उनको मर्यादा का उल्लंघन नहीं करने देते। प्रमाण और प्रमाणाभास के स्वरूप को जानने वाले वादी-प्रतिवादी के बिना तो वाद ही कैसा? इस प्रकार निश्चित होता है कि वाद के चार अंग होते हैं। 302:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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