________________ 6/73 तदाभासतोद्भाविता। एवं तौ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहतापरिहतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ, प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च भवतः। प्रतिवादी- जो वादी के पक्ष को असिद्ध करने का प्रयत्न करता है, सभ्य- वाद को सुनने देखने वाले एवं प्रश्न कर्ता मध्यस्थ लोग सभापति-वाद में कलह नहीं होने देना, दोनों पक्षों को जानने वाला एवं जय पराजय का निर्णय देने वाला सज्जन पुरुष। वादी और प्रतिवादी वे ही होने चाहिये जो प्रमाण और प्रमाणाभास का स्वरूप भली प्रकार से जानते हों, अपने अपने मत में निष्णात हों, एवं अनुमान प्रयोग में अत्यन्त निपुण हों, क्योंकि वाद में अनुमान प्रमाण द्वारा ही प्रायः स्वपक्ष को सिद्ध किया जाता है। वादी प्रमाण और प्रमाणाभास को अच्छी तरह जानता हो तो अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिये सत्य प्रमाण उपस्थित करता है, प्रतिवादी यदि न्याय करने के लिये सत्य प्रमाण उपस्थित करता है, प्रतिवादी यदि न्याय के क्रम का उल्लंघन नहीं करता और उस प्रमाण के स्वरूप को जानने वाला होता है तो उस सत्य प्रमाण में कोई दूषण नहीं दे पाता और इस तरह वादी का पक्ष सिद्ध हो जाता है तथा आगे भी प्रतिवादी यदि कुछ प्रश्नोत्तर नहीं कर पाता तो वादी की जय भी हो जाती है तथा वादी यदि प्रमाणादि को ठीक से नहीं जानता तो स्वपक्ष को सिद्ध करने के लिये प्रमाणाभास असत्य प्रमाण उपस्थित करता है तब प्रतिवादी उसके प्रमाण को सदोष बता देता है। अब यदि वादी उस दोष को दूर कर देता है तो ठीक है अन्यथा उसका पक्ष असिद्ध होकर आगे उसकी पराजय भी हो जाती है। कभी ऐसा भी होता है कि वादी सत्य प्रमाण उपस्थित करता है तो भी प्रतिवादी उसको पराजित करने के लिये उस प्रमाण को दूषित ठहराता है। तब वादी उस दोष का यदि परिहार कर पाता है तो ठीक वरना पराभव होने की संभावना है। कभी ऐसा भी होता है कि वादी द्वारा सही प्रमाण युक्त पक्ष उपस्थित किया है तो भी प्रतिवादी अपने मत की अपेक्षा या वचन चातुर्य 290:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः