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________________ 7/1 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 321 समभिरूढाश्रयणाद्वा पर्यायभेदेन भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वम्; अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। एवंभूताश्रयणाद्वा प्रस्थादिक्रियापरिणतस्यैवार्थस्य प्रस्थादित्वं नान्यस्य' अतिप्रसङ्गादिति। तथा स्यादुभयं क्रमार्पितोभयनयार्पणात्। स्यादवक्तव्यं प्रस्थादि हैं वह संग्रह नय की अपेक्षा निषिद्ध होता है। अथवा नैगम के संकल्पमात्र रूप प्रस्थादि का निषेध व्यवहार से भी होता है, क्योंकि व्यवहारनय भी द्रव्यप्रस्थादि या पर्यायप्रस्थादि का विधायक है। इससे विपरीत संकल्पमात्र में स्थित प्रस्थादि फिर चाहे वे आगामी समय में सत्रूप हों या असत् रूप हों ऐसे प्रस्थादि का विधायक व्यवहार नहीं हो सकता। नैगम के प्रस्थादि का ऋजुसूत्रनय द्वारा ग्रहण नहीं होता क्योंकि यह पर्याय मात्र के प्रस्थादि को प्रस्थपने से प्रतिपादन करता है अतः नैगम के प्रस्थादि का वह निषेध (नास्ति) ही करेगा। अर्थात् प्रस्थ पर्याय से जो रहित है उसकी प्रतीति इस नय से नहीं हो सकती। शब्दनय भी कालादि के भेद से भिन्न अर्थरूप जो प्रस्थादि है उसी को प्रस्थपने से कथन करता है अन्यथा अतिप्रसंग होगा। समभिरूढ़नय का आश्रय लेने पर भी नैगम के प्रस्थादि में प्रतिषेध कल्पना होती है, क्योंकि समभिरूढ़ पर्याय के भेद से भिन्न अर्थरूप को ही प्रस्थादि स्वीकार करेगा, अन्यथा अतिप्रसङ्ग होगा। एवंभूत का आश्रय लेकर भी सङ्कल्परूप प्रस्थादि में प्रतिषेध कल्पना होती है, क्योंकि यह नय भी प्रस्थ की मापने की जो क्रिया है उस क्रिया में परिणत प्रस्थ को ही प्रस्थपने से स्वीकार करता है, सङ्कल्पस्थित प्रस्थ का प्रस्थपना स्वीकार नहीं करता, अन्यथा अति प्रसङ्ग होगा। इस प्रकार नैगमनय द्वारा गृहीत प्रस्थादि विधिरूप है और अन्य छह नयों में से किसी एक नय का आश्रय लेने पर उक्त प्रस्थादि प्रतिषेध रूप है अतः प्रस्थादि स्यादस्ति, प्रस्थादि स्यान्नास्ति, ये दो भंग हुए, तथा क्रम से अर्पित उभयनय की अपेक्षा प्रस्थादि स्याद् उभय रूप हैं
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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