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________________ 6/73 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 301 संशयस्य विपर्ययस्य वा जननात्। तत्त्वाध्यवसाये सत्यपि हि परनिर्मुखीकरणे प्रवृत्तौ प्राश्निकास्तत्र संशेरते विपर्ययस्यन्ति वा-'किमस्य तत्त्वाध्यवसायोस्ति किं वा नास्तीति, नास्त्येवेति वा' परनिर्मुखीकरणमात्रे तत्त्वाध्यवसायरहितस्यापि प्रवृत्त्युपलम्भात् तत्त्वोपप्लववादिवत् तथा चाख्यातिरेवास्य प्रेक्षावत्सु स्यादिति कुतः पूजा लाभो वा! 73. ततः सिद्धश्चतुरङ्गो वाद: स्वाभिप्रेतार्थव्यवस्थापनफलत्वाद्वादत्वाद्वा लोकप्रख्यातवादवत्। एकाङ्गस्यापि वैकल्ये प्रस्तुतार्थाऽपरिसमाप्तेः। तथा हि। अहङ्कारग्रहग्रस्तानां मर्यादातिक्रमेण प्रवर्तमानानां शक्तित्रयसमन्वितौदासीन्यादिगुणोपेतसभापतिमन्तरेण है या नहीं? अथवा मालूम पड़ता है कि इसे तत्त्व का निश्चय हुआ ही नहीं इत्यादि। बात यह है कि परवादी की जबान बंद कर देना उसे निरुत्तर करना इत्यादि कार्य को करना तो जिसे तत्त्वाध्यवसाय नहीं हुआ ऐसा पुरुष भी कर सकता है अतः प्राश्निक महाशयों को संदेहादि होंगे कि तत्त्वोपल्लवादी के समान यह वादी तत्त्व निश्चय रहित दिखाई दे रहा है इत्यादि। जब इस तरह वादी केवल परवादी को निर्मुख करने में प्रवृत्ति करेगा तो बुद्धिमान पुरुषों में उसकी अप्रसिद्धि ही होगी। फिर ख्याति और लाभ कहाँ से होंगे? अर्थात् नहीं हो सकते। 73. इस प्रकार जो शुरू में हम जैन ने कहा था कि चतुरंगवाद होता है, अतः वह सिद्ध हुआ, बाद के चार अंग होते हैं यही अपने इच्छित तत्त्व की व्यवस्था करता है सच्चा वरदपना तो इसी में है। जैसे कि लोक प्रसिद्ध वाद में वादपना या तत्त्व व्यवस्था होने से चतुरंगता होती है। यह निश्चित समझना कि यदि वाद में एक अंग भी नहीं रहेगा तो वह प्रस्तुत अर्थ जो तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण है उसे पूर्ण नहीं कर सकता। अब आगे वाद के चार अंग सिद्ध करते हैं, सबसे पहले सभापति को देखे, वाद सभा में जब वादी प्रतिवादी अहंकार से ग्रस्त होकर मर्यादा का उल्लंघन करने लग जाते हैं तब उनको प्रभुत्व शक्ति, उत्साह, शक्ति और मन्त्र शक्ति ऐसी तीन शक्तियों से युक्त उदासीनता,
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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