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________________ 300 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 6/73 72. तत्त्वस्याध्यवसायो हि निश्चयस्तस्य संरक्षणं न्यायबलान्निखिलबाधकनिराकरणम्, न पुनस्तत्र बाधकमुद्रावयतो यथाकथञ्चिन्निर्मुखीकरणं लकुटचपेटादिभिस्तन्न्यक्करणस्यापि तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वानुषङ्गात्। न च जल्पवितण्डाभ्यां निखिलबाधकनिराकरणम्। छलजात्युपक्रमपरतया ताभ्यां क्षमता को घेरते हैं। इस प्रकार प्रभाचन्द्राचार्य ने उन्हीं यौग के सिद्धान्त के अनुसार यह सिद्ध किया है कि जल्प और वितंडा से तत्त्व संरक्षण नहीं होता, अपितु वाद से ही होता है। ___72. “तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण" इस शब्द के अर्थ पर विचार करते हैं-तत्त्व का अध्यवसाय अर्थात् निश्चय होना उसका संरक्षण करना अर्थात् हमने जो तत्त्व का निर्णय किया हुआ है उसमें कोई बाधा करे तो उस सम्पूर्ण बाधा को न्याय बल से दूर करना, इस तरह तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण का अर्थ है। तत्त्व निश्चय का संरक्षण, बाधा देने वाले पुरुष का मुख जैसा बने वैसा वाद करना नहीं है, अर्थात् अपने पक्ष में प्रतिवादी ने बाधक प्रमाण उपस्थित किया हो तो उसका न्यायपूर्वक निराकरण करना तो ठीक है किन्तु निराकरण का मतलब यह नहीं है कि प्रतिवादी का मुख चाहे जैसे भी बंद कर दें। ऐसा करने से कोई तत्त्व निश्चय का संरक्षण नहीं होता। यदि प्रतिवादी का मुख बंद करने से ही इष्ट सिद्ध होता है तो लाठी चपेटा आदि से भी प्रतिवादी का मुख बंद कर सकते हैं और तत्त्व संरक्षण कर सकते हैं? किन्तु ऐसा नहीं होता है। कोई कहे कि जल्प और वितंडा से तो सम्पूर्ण बाधाओं का निराकरण हो सकता है, तब यह बात गलत है। जल्प और वितंडा में तो न्यायपूर्वक निराकरण नहीं होता किन्तु छल और जाति के प्रस्ताव से बाधा का निराकरण करते हैं। इस तरह के निराकरण करने से तो संशय और विपर्यय पैदा होता है। जल्प और वितण्डा में प्रवृत्त हुए पुरुष प्रतिवादी के मुख को बंद करने में ही लगे रहते हैं। यदि कदाचित् उनके तत्त्व-अध्यवसाय हो तो भी प्राश्निक लोगों का संशय या विपर्यय हो जाता है कि क्या इस वैतंडिक को तत्त्वाध्यवसाय
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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