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6/73 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
295 तस्यैव तत्संरक्षणार्थत्वोपपत्तेः। तथाहि-वाद एव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थः, प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भत्वे सिद्धान्ताविरुद्धत्वे पञ्चावयवोपपन्नत्वे च सति पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्त्वात्, यस्तु न तथा स न तथा यथाक्रोशादिः, तथा च वादः, तस्मात्तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ इति।
69. न चायमसिद्धो हेतुः; "प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वाद:"21 इत्यभिधानात्। 'पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्त्वात्' इत्युच्यमाने जल्पोपि तथा स्यादित्यवधारणविरोधः, तत्परिहारार्थं प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भत्वविशेषणम्। न हि जल्पे तदस्ति, "यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः।"22 इत्यभिधानात्। नापि वितण्डा
द्वारा ही हो सकता है जल्प और वितंडा द्वारा नहीं, क्योंकि वाद चार विशेषणों से भरपूर है अर्थात् प्रमाण तर्क, स्वपक्ष साधन, परपक्षउपालंभ देने में समर्थ वाद ही है यह सिद्धान्त से अविरुद्ध रहता है, तथा अनुमान के पाँच अवयवों से युक्त होकर पक्ष प्रतिपक्ष के ग्रहण से भी युक्त है जो इतने गुणों से युक्त नहीं होता वह तत्त्वाध्यवसाय का रक्षण भी नहीं करता, जैसे आक्रोश गाली वगैरह के वचन तत्त्व का संरक्षण नहीं करते। वेद प्रमाण, तर्क इत्यादि से युक्त है अतः तत्त्वाध्यवसाय का संरक्षण करने के लिये होता है।
69. यह प्रमाण तर्क साधनोपालंभत्व इत्यादि से युक्त जो हेतु है वह असिद्ध नहीं समझना, आप योग का सूत्र है कि “प्रमाणतर्कसाधनोपालंभः सिद्धांताविरुद्धः पंचावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः" अर्थात् वाद प्रमाण, तर्क, साधनोपालंभ इत्यादि विशेषण युक्त होता है ऐसा इस सूत्र में निर्देश पाया जाता है, यदि इस सूत्र में "पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्व" इतना ही हेतु देते अर्थात् वाद का इतना लक्षण करते तो जल्प भी इस प्रकार का होने से उसमें यह लक्षण चला जाता
और यह अवधारण नहीं हो पाती कि केवल वाद ही इस लक्षण वाला है। इस दोष का परिहार करने के लिये प्रमाण तर्क साधनोपालंभयुक्त 21. न्यायसूत्र 1/2/1 22. न्यायसूत्र 1/2/2