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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
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66. ननु वादे सतामप्येषां निग्रहबुध्योद्भावनाभावान्न विजिगीषास्ति। तदुक्तम्-"तर्कशब्देन भूतपूर्वगतिन्यायेन वीतरागकथात्वज्ञापनादुद्भावननियमोपलभ्यते" तेन सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न इति चोत्तरपदयो: समस्तनिग्रहस्थानाधुपलक्षणार्थत्वाद्वादेऽप्रमाणबुद्ध्या परेण छलजातिनिग्रहस्थानानि प्रयुक्तानि न निग्रहबुध्धोद्भाव्यन्ते किन्तु निवारणबुध्या। तत्त्वज्ञानायावयोः प्रवृत्तिर्न च साधनाभासो दूषणाभासो वा तद्धेतुः। अतो न तत्प्रयोगो युक्त
इति।
सहा
66. योग- यद्यपि उपर्युक्त निग्रहस्थान वाद में भी होते हैं किन्तु उनको परवादी का निग्रह हो जाय इस बुद्धि से प्रकट नहीं किया जाता। अत: इस वाद में विजिगीषा [जीतने की इच्छा] नहीं होती। कहा भी है वाद का लक्षण करते समय तर्क शब्द आया है वह भूतपूर्व गति न्याय से वीतराग कथा का ज्ञापक है अतः वाद में निग्रह स्थान किस प्रकार से प्रकट किये जाते हैं उसका नियम मालूम पड़ता है, बात यह है कि “यहाँ पर यही अर्थ लगाना होगा अन्य नहीं" इत्यादि रूप से विचार करने को तर्क कहते हैं।
जब वादी प्रतिवादी व्याख्यान कर रहे हों तब उनका जो विचार चलता है उसमें वीतरागत्व रहता है। ऐसे ही वाद काल में भी वीतरागत्व रहता है वाद काल की वीतरागता तर्क शब्द से ही मालूम पड़ती है, मतलब यह है कि व्याख्यान-उपदेश के समय और वाद के समय वादी प्रतिवादी वीतराग भाव से तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं, हार-जीत की भावना से नहीं- ऐसा नियम है।
प्रमाणतर्क साधनोपालंभ सहित वाद होता है इस पद से तथा सिद्धान्त अविरुद्ध, पंचावयवोपपन्न इन उत्तर पदों से सारे ही निग्रहस्थान संगृहीत होते हैं इन निग्रहस्थानों का प्रयोग पर का निग्रह करने की बुद्धि से नहीं होता किन्तु निवारण बुद्धि से होता है तथा उपलक्षण से जाति, छल आदि का प्रयोग भी निग्रह बुद्धि से न होकर निवास बुद्धि से होता है ऐसा नियम है, जब वाद में वादी प्रतिवादी प्रवृत होते हैं तब उनका परस्पर में निर्णय रहता है कि अपने दोनों की जो वचनालाप की प्रवृत्ति