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282 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
6/62 विषयाभासाः-सामान्यं यथा सत्ताद्वैतवादिनः। केवलं विशेषो वा यथा सौगतस्य। द्वयं वा स्वतन्त्रं यथा यौगस्य। कुतोस्य विषयाभासतेत्याह
तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च ॥62॥
स ह्येवंविधोर्थः स्वयमसमर्थः समर्थो वा कार्यं कुर्यात्? तावत्प्रथमः पक्षः; विशेष सर्वथा पृथक् एक स्वतन्त्र पदार्थ है- ऐसा मानते हैं। ये सभी विषय असत् हैं, इस प्रकार के विषय को ग्रहण करने वाला प्रमाण नहीं होता है। प्रमाण तो सामान्य और विशेष दोनों जिसके अभिन्न अंग हैं ऐसे पदार्थ को विषय करता है अतः एक एक को विषय मानना विषयाभास है। आगे इसी को बताते हैं
तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च ॥62॥
सूत्रार्थ- सामान्य और विशेष ये दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं अथवा एक सामान्य मात्र ही जगत् में पदार्थ है, या एक विशेष नामा पदार्थ ही वास्तविक है। सामान्य तो काल्पनिक है।
ऐसा प्रतीत नहीं होता, प्रतीति में तो सामान्य विशेषात्मक एक वस्तु आती है, देखिये- गाय में गोत्व सामान्य और कृष्ण शुक्ल आदि विशेष क्या भिन्न-भिन्न प्रतिभासित होते हैं? नहीं होते, संसार भर का कोई भी पदार्थ हो वह सामान्य विशेषात्मक ही रहेगा- ऐसा अटल नियम है और यह नियम भी कोई जबरदस्ती स्थापित नहीं किया है किन्तु इसी प्रकार की प्रतीति आने से प्रतीति के आधार पर ही स्थापित हुआ है।
सामान्य विशेषात्मक ही पदार्थ है पृथक् पृथक् दो नहीं है। ऐसा मानने का कारण यह भी है कि अकेला सामान्य या अकेला विशेष कोई भी कार्य नहीं कर सकता है। हम जैन सत्ताद्वैतवादी आदि परवादियों से प्रश्न करते हैं कि अकेला स्वतन्त्र ऐसा यह सामान्य या विशेष यदि कार्य करता है तो स्वयं समर्थ होकर करता है या असमर्थ होकर करता है? स्वयं असमर्थ होकर तो कार्य कर नहीं सकते, क्योंकि
स्वयमसमर्थस्याऽकारकत्वात् पूर्ववत् ॥3॥ सूत्रार्थ- जो स्वयं असमर्थ है वह कार्य कर नहीं सकता जैसे