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266 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
6/43-44 कुतश्चिव्यामोहात् 'यद्पौरुषेयं तदमूर्तम्' इति प्रदर्शयति। न चैवं प्रदर्शनीयम्
विद्युदादिनाऽतिप्रसङ्गादिति॥43॥
विद्युद्वनकुसुमादौ ह्यऽपौरुषेयत्वेप्यमूर्तत्वं नास्तीति। व्यतिरेके दृष्टान्ताभासा:व्यतिरेके असिद्धतव्यतिरेकाः परमाण्विन्द्रियसुखाकाशवत् ॥44॥
कहते हैं, इस प्रकार विपरीतान्वय शब्द का विग्रह है। जो अमूर्त है वह अपौरुषेय होता है ऐसा सही अन्वय दिखाना चाहिए अर्थात् साध्य के साथ साधन की व्याप्ति बतलानी थी अतः किसी व्यामोह के कारण उलटा अन्वय कर बैठता है कि जो अपौरुषेय है वह अमूर्त होता है। ऐसा कहना ठीक क्यों नहीं इस बात को इस सूत्र में कहते हैं
विद्युदादिनाऽतिप्रसंगात् ॥43॥
सूत्रार्थ- यदि जो अपौरुषेय है वह अमूर्त होता है ऐसा निश्चय करेंगे तो विद्युत-बिजली आदि पदार्थ के साथ अतिप्रसंग प्राप्त होगा।
अर्थात् विद्युत, वन के पुष्प, इत्यादि पदार्थ अपौरुषेय तो अवश्य है [किसी मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं है] किन्तु अमूर्त नहीं हैं, इसीलिये विपरीत अन्वय दिखाना दृष्टान्ताभास है। जो अमूर्त है वह अपौरुषेय होता है ऐसा कहना तो घटित होता है किन्तु इससे विपरीत कहना घटित नहीं होता, अतः दृष्टान्त देते समय वादी प्रतिवादी को चाहिए कि वे विपरीत अन्वय न करें और न साध्य आदि से रहित ऐसे दृष्टान्त को उपस्थित करें।
अब व्यतिरेक में दृष्टान्ताभास किस प्रकार होते हैं यह बताते
व्यतिरेके असिद्ध तद् व्यतिरेकाः परमण्विन्द्रियसुखाकाशवत् 1144॥
सूत्रार्थ- जिस दृष्टान्त में साध्य के व्यतिरेक की व्याप्ति न हो