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6/33-34 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
257 शङ्कितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वादिति ॥33॥ कुतोऽयं शङ्कितवृत्तिरित्याहसर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥34॥
40. एतच्च सर्वज्ञसिद्धिप्रस्तावे प्रपञ्चितमिति नेहोच्यते। पराभ्युपगतश्च पक्षत्रयव्यापकाद्यनैकान्तिकप्रपञ्च एतल्लक्षणलक्षितत्वाविशेषान्नातोऽर्था
सूत्रार्थ- यह प्रमेयत्व नित्य आकाश में भी रहता है अत: व्यभिचरित है। शंकितवृत्ति अनैकान्तिक का उदाहरण
शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ॥33॥
सूत्रार्थ- जिसका विपक्ष में जाना संशयास्पद हो वह शंकित वृत्ति अनैकांतिक है जैसे- सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह बोलता है।
वह वक्तृत्व हेतु शंकित वृत्ति हेत्वाभास क्यों हुआ उसे बताते
सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥34॥ सूत्रार्थ- सर्वज्ञ के साथ वक्तृत्व का कोई विरोध नहीं है।
अर्थात् जो सर्वज्ञ हो वह बोले नहीं ऐसा कोई नियम नहीं, अतः सर्वज्ञ का नास्तिपना वक्तृत्व हेतु द्वारा सिद्ध नहीं होता, वक्तृत्व तो सर्वज्ञ हो चाहे असर्वज्ञ हो दोनों प्रकार के पुरुषों में पाया जाना संभव है।
40. इस विषय में सर्वज्ञ सिद्धि प्रकरण में [दूसरे भाग में] विस्तारपूर्वक कह दिया है, अब यहाँ नहीं कहते। नैयायिकादि ने इस अनैकान्तिक हेत्वाभास के पक्ष त्रय व्यापक आदि अनेक [आठ] भेद किये हैं किंतु उन सबमें यही एक लक्षण "विपक्ष में अविरुद्धरूप में रहना पाया जाता है अतः इस अनैकान्तिक से पृथक् सिद्ध नहीं होते, सभी में विपक्ष के एक देश में या पूरे विपक्ष में अविरुद्ध से रहना संभव
अब इन्हीं नैयायिकादि के अनैकान्तिक हेत्वाभासों के उदाहरण दिये जाते हैं।