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________________ 256 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 6/31-32 व्यभिचारो नाम? पक्षसपक्षान्यवृत्तित्वम्। यः खलु पक्षसपक्षवृत्तित्वे सत्यन्यत्र वर्त्तते स व्यभिचारी प्रसिद्धः। यथा लोके पक्षसपक्षविपक्षवर्ती कश्चित्पुरुषस्तथा चायमनैकान्तिकत्वेनाभिमतो हेतुरिति। स च द्वेधा निश्चितवृत्तिः शङ्कितवृत्तिश्चेति। तत्रनिश्चितवृत्तिर्यथाऽनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद् घटवदिति ॥31॥ कथमित्याह आकाशे नित्येप्यस्य सम्भवादिति ॥32॥ शब्द का अर्थ है। एक धर्म में जो नियत है वह ऐकान्तिक है और जो ऐकान्तिक नहीं वह अनैकान्तिक कहा जाता है, “एकस्मिन् अन्ते [धर्मे] नियतः स ऐकान्तिक [इकण प्रत्यय] न ऐकान्तिकः असौ अनैकान्तिकः” इस प्रकार अनैकान्तिक पद का विग्रह है। अर्थ यह हुआ कि जो विपक्ष से व्यभिचरित होता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास कहलाता है। ___ कोई पूछे कि व्यभिचार किसे कहते हैं? तो इसका उत्तर यह है कि पक्ष सपक्ष और विपक्ष में रहना व्यभिचार है, जो हेतु पक्ष और सपक्ष में रहते हुए अन्य विपक्ष में भी जाता है वह व्यभिचारी हेतु होता है, जैसे लोक में भी प्रसिद्ध है कि जो कोई पुरुष अपने पक्ष में तथा सपक्ष में बोलता है और विपक्ष में भी बोलने लग जाता है अर्थात् तीनों में मिला रहता है उसे व्यभिचारी (दोगला) कहते हैं ऐसा ही यह हेतु अनैकान्तिकरूप माना गया है। इसके दो भेद हैं निश्चितवृत्ति और शंकितवृत्ति। निश्चितवृत्ति अनैकान्तिक का उदाहरण निश्चितवृत्तिर्यथानित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् ॥31॥ सूत्रार्थ- जो निश्चित रूप से विपक्ष में जाता हो वह हेतु निश्चित वृत्ति अनैकान्तिक हेत्वाभास है जैसे- शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रमेय है, जिस प्रकार घट प्रमेय होने से अनित्य है। यह हेतु व्यभिचरित कैसे होता है उसे यहां बताते हैंआकाशे नित्येप्यस्य संभवात् ॥32॥
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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