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________________ 6/24 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 239 14. ये च विशेष्यासिद्धादयोऽसिद्धप्रकाराः परिष्टास्तेऽसत्सत्ताकत्वलक्षणासिद्धप्रकारान्नार्थान्तरम्, तल्लक्षणभेदाभावात्। यथैव हि स्वरूपासिद्धस्य स्वरूपतोऽसत्त्वादसत्सत्ताकत्वलक्षणमसिद्धत्वं तथा विशेष्यासिद्धादीनामपि विशेष्यत्वादिस्वरूपतोऽसत्त्वात्तल्लक्षणमेवासिद्धत्वम्। 15. तत्र विशेष्यासिद्धो यथा-अनित्यः शब्द: सामान्यवत्त्वे सति चाक्षुषत्वात्। विषय में शब्द को पौद्गलिक सिद्ध करते समय भली प्रकार से बता चुके हैं। मतलब यह हुआ कि शब्द को परिणमनशील सिद्ध करने के लिये यदि कोई अनुमान करे कि “परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात्" तो यह स्वरूपसिद्ध हेत्वाभास वाला अनुमान है अर्थात् चाक्षुषत्वात् हेतु शब्द में नहीं है। 14. नैयायिकादि ने असिद्ध हेत्वाभास के विशेष्यासिद्ध, विशेषणसिद्ध इत्यादि अनेक भेद किये हैं उन सब प्रकार के हेत्वाभासों में असत् सत्तारूप असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण घटित होने से इससे पृथक् सिद्ध नहीं होते, जिस प्रकार इस स्वरूपसिद्ध हेतु में स्वरूप से असत् होने के कारण असत् सत्तात्व लक्षण वाला असिद्धपना मौजूद है उसी प्रकार विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासों में भी विशेष्यादिस्वरूप से असत्पना होने से असत्सत्तात्व लक्षण मौजूद हैं, अतः वे असिद्ध हेत्वाभास में ही अन्तर्भूत है। असिद्ध हेत्वाभास अब यहाँ पर परवादी द्वारा मान्य इन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासों का उदाहरण सहित कथन किया जाता हैविशेष्यासिद्ध हेत्वाभास 15. जैसे किसी ने अनुमान प्रस्तुत किया कि शब्द अनित्य है [साध्य] क्योंकि सामान्यवान होकर चाक्षुष है [हेतु] सो इसमें चाक्षुष हेतुविशेष्य है और उसका विशेषण सामान्यवान है, चाक्षुषपनारूप विशेष्य शब्द में नहीं पाया जाता, अतः यह विशेष्यासिद्ध नाम का हेत्वाभास कहलाया।
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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