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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
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चक्षूरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥5॥ 2. एतच्च सर्वं प्रमाणसामान्यलक्षणपरिच्छेदे विस्तरतोऽभिहितमिति
स्पर्श होता है किन्तु उस पुरुष का उस पर लक्ष्य नहीं होने से कुछ है, कुछ पैर में लगा है- इतना समझ वह पुरुष आगे बढ़ता है, उसको यह निर्णय नहीं होता कि यह किस वस्तु का स्पर्श हुआ है। इसी तरह बौद्ध जो निर्विकल्प दर्शन को ही प्रमाण मान बैठे हैं वह दर्शन वस्तु का निश्चय नहीं कर सकता अतः प्रमाणाभास है। संशय ज्ञान स्थाणु और पुरुष आदि में होने वाला जो चलित प्रतिभास है यह भी वस्तु बोध नहीं कराता अतः प्रमाणाभास है।
इन संशय विपर्यय और अनध्यवसाय को तो सभी ने प्रमाणाभास माना है।
चक्षूरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥5॥
सूत्रार्थ-चक्षु और रस की द्रव्य में संयुक्त समवाय होने पर भी ज्ञान नहीं होता अर्थात् सन्निकर्ष को प्रमाण मानने वालों के मत में चक्षु
और रस का सन्निकर्ष होना तो मानते हैं किन्तु वह सन्निकर्ष प्रमाणभूत नहीं है क्योंकि उस सन्निकर्ष द्वारा ज्ञान रस का ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार अस्वसंवेदित ज्ञान तथा सन्निकर्षादि भी प्रमाणभास है अर्थात् वैशेषिकादि परवादी सन्निकर्ष को [इन्द्रिय द्वारा वस्तु का स्पर्श होना] प्रमाण मानते हैं किन्तु वह प्रमाणभास है, क्योंकि यदि सन्निकर्ष छूना मात्र प्रमाण होता तो जैसे नेत्र द्वारा रूप का स्पर्श होकर रूप का ज्ञान होना मानते हैं वैसे जहाँ जिस द्रव्य में रूप है उसी में रस है अतः नेत्र
और रूप का संयुक्त समवाय होकर नेत्र द्वारा रूप का ज्ञान होना मानते हैं, वैसे उसी रूप युक्त पदार्थ में रस होने से नेत्र का भी रस के साथ संयुक्त समवाय है किन्तु नेत्र द्वारा रस का ज्ञान तो होता ही नहीं, अत: निश्चय होता है कि सन्निकर्ष प्रमाण नहीं प्रमाणाभास है।
2. इन अस्वसंविदित आदि के विषय में पहले परिच्छेद में प्रमाण का सामान्य लक्षण करते समय विस्तारपूर्वक कहा जा चुका है