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________________ 6/2-4 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 225 अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः ॥2॥ प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वाभावात् ॥3॥ पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् ॥4॥ विपरीत सर्वथा भिन्न या अभिन्न मानना फलाभास है। इन्हीं को आगे क्रम से आचार्य श्री मणिक्यनन्दी सूत्र द्वारा प्रतिपादन करते हैं- सर्वप्रथम स्वार्थ व्यवसायात्मक प्रमाण से अन्य जो हो वह प्रमाणाभास है ऐसा प्रमाणाभास का लक्षण करते हुए कहते हैं अस्वसंविदिगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः॥2॥ स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् ॥3॥ सूत्रार्थ-अपने आपको नहीं जानने वाला ज्ञान, गृहीतग्राही ज्ञान, निर्विकल्प ज्ञान, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय इत्यादि प्रमाणाभास कहलाते हैं [असत् ज्ञान कहलाते हैं क्योंकि ये सभी ज्ञान अपने विषय का प्रतिभास करने में असमर्थ है निर्णय कराने में भी असमर्थ है। आगे इन्हीं का उदाहरण देते हैंपुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् ॥4॥ सूत्रार्थ-अस्वसंविदित-अपने को नहीं जानने वाला ज्ञान अन्य पुरुष के ज्ञान के समान है, अर्थात्- जो स्वयं को नहीं जानता वह दूसरे व्यक्ति के ज्ञान के समान ही है, क्योंकि जैसे पराया ज्ञान हमारे को नहीं जानता वैसे हमारा ज्ञान भी हमें नहीं जानता, अतः इस तरह का ज्ञान प्रमाणाभास है। गृहीत ग्राही- जाने हुए को जानने वाला ज्ञान पूर्वार्थ पहले जाने हुए वस्तु के ज्ञान के समान है, इस ज्ञान से अज्ञान निवृत्ति रूप फल नहीं होता क्योंकि उस वस्तु सम्बन्धी अज्ञान को पहले के ज्ञान ने ही दूर किया है। अतः यह भी प्रमाणाभास है। निर्विकल्प दर्शन चलते हुए पुरुष के तृण स्पर्श के ज्ञान के समान अनिर्णयात्मक है, जैसे चलते हुए पुरुष के पैर में कुछ तृणादि का
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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