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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः व्यवस्थापि न स्यात्? ततः पारमार्थिक प्रमाणफले प्रतीतिसिद्धे कथञ्चिद्भिन्ने प्रतिपत्तव्ये प्रमाणफलव्यवस्थान्यथानुपपत्तेरिति स्थितम्।'
योऽनेकान्तपदं प्रवृद्धमतुलं स्वेष्टार्थसिद्धिप्रदम्, प्राप्तोऽनन्तगुणोदयं निखिलविन्निःशेषतो निर्मलम्।
प्रमाण से उसके फल को सर्वथा अभिन्न बताने वाले बौद्ध के यहाँ भी बाधा आती है, क्योंकि प्रमाण और उसका फल सर्वथा अभिन्न है, अपृथक् है तो यह प्रमाण है और यह उसका फल है ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती। अतः सही मार्ग तो स्याद्वाद की शरण लेने पर ही मिलता है कि प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा तो भिन्न है, प्रमाण का लक्षण स्वपर को जानना है और अज्ञान दूर होना इत्यादि फल का लक्षण है।
हान, उपादान एवं उपेक्षा ये भी प्रमाण के फल हैं, जो पुरुष जानता है वही हान क्रिया को करता है अर्थात् प्रमाण द्वारा यह पदार्थ अनिष्टकारी है ऐसा जानकर उसे छोड़ देता है तथा उपादान क्रिया अर्थात् यह पदार्थ इष्ट है ऐसा जानकर उसे ग्रहण करता है, जो पदार्थ न इष्ट है और न अनिष्ट है उसकी उपेक्षा करता है- उसमें मध्यस्थता रखता है, यह सब उस प्रमाता पुरुष की ही क्रिया है। यह प्रमाण का फल परम्परा फल कहलाता है क्योंकि प्रथम फल तो उस वस्तु सम्बन्धी अज्ञान दूर होना है अज्ञान से निवृत्त होने पर उसे छोड़ना या ग्रहण करना आदि क्रमशः बाद में होता है।
इस प्रकार प्रमाण और फल में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है ऐसा सिद्ध होता है। इस प्रकार विषय परिच्छेद नामा इस अध्याय में श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने प्रमाण का विषय क्या है इसका बहुत विस्तृत विवेचन किया है अंत में यह फल का प्रकरण भी दिया है। अब यहाँ पर आचार्य प्रभाचन्द्र इस परिच्छेद को समाप्त करके अन्तिम आशीर्वादात्मक मंगल श्लोक प्रस्तुत करते हैं
योऽनेकान्त पदं प्रवृद्धमतुलं स्वेष्टार्थसिद्धिप्रदम्। प्राप्तोऽन्तगुणोदयं निखिलविभिन्नः शेषतो निर्मलम्॥