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________________ ( xxiv) रचना की है। बौद्धदर्शन में हेतुमुख, न्यायमुख जैसे ग्रन्थ थे। माणिक्यनन्दि जैन न्याय के साहित्य कोषागार में अपना परीक्षामुख रूपी एक ही माणिक्य को जमा करके अपना अमर स्थान बना गए हैं। शिमोगा जिले के नगर ताल्लुके के शिलालेख नं. 64 के एक श्लोक में आचार्य माणिक्यनन्दि को जिनराज विशेषण तक दिया गया है माणिक्यनन्दीजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिभर्दी। चित्रं प्रभाचन्द्र इह क्षमायां मार्तण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपि॥' इसी तरह न्यायदीपिका में आचार्य माणिक्यनन्दि को भगवान विशेषण प्रदान करते हुए कहा है-तथा चाह भगवान् माणिक्यन्दिभट्टारकः प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रभाचन्द्र ने इनका गुरु के रूप में स्मरण करते हुए इनके पदपंकज के प्रसाद से ही प्रमेयकमलमार्तण्ड की रचना करने का उल्लेख किया है। इससे माणिक्यनन्दि के असाधारण वैदुष्य का परिज्ञान होता है। 'सुदंसणचरिउ' के कर्त्ता नयनन्दि (वि.सं. 1100) के उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दि के गुरु का नाम रामनन्दी है और स्वयं नयनन्दी उनके प्रथम शिष्य हैं। आचार्य माणिक्यनन्दि अनेक दर्शनों के ज्ञाता थे। उन्होंने चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, योग, न्याय-वैशेषिक, प्राभाकर, जैमिनीय और मीमांसकों के नामोल्लेखपूर्वक उनके सिद्धान्तों की समीक्षा की है जिससे उनके इतर दर्शनों के ज्ञान का प्रमाण मिलता है।' परीक्षमुख की टीका प्रमेयरत्नमाला के रचयिता आचार्य अनन्तवीर्य के अनुसार माणिक्यनन्दी आचार्य अकलंकदेव के परवर्ती आचार्य हैं। पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने अकलंकग्रन्थत्रय की प्रस्तावना में आचार्य अकलंक का समय ई. 720 से 780 तक सिद्ध किया है। अकलंक देव के लघीयस्त्रय और न्यायविनिश्चय आदि तर्कग्रन्थों का परीक्षामुख पर पर्याप्त प्रभाव है, अतः आचार्य माणिक्यनन्दि के समय की पूर्वावधि ई. 800 निर्बाध मानी जा सकती है। पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रस्तावना में स्पष्ट लिखा है कि 'प्रज्ञाकरगुप्त (ई. 725 तक) प्रभाकर (8वीं शती का पूर्व भाग) आदि के मतों का
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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