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________________ 3/101 तस्याप्यन्येनाभिव्यक्तसम्बन्धेनेति। यदि पुनः कस्यचित्स्वत एव सम्बन्धाभिव्यक्तिः; अपरस्यापि सा तथैवास्तीति सङ्केतक्रिया व्यर्था। शब्दविभागाभ्युपगमे चालं सम्बन्धस्य नित्यत्वकल्पनया। कल्पने चाऽगृहीतसङ्केतस्याप्यतोऽर्थप्रतिपत्तिः स्यात्। 149. सङ्केतस्तस्य व्यञ्जकः; इत्यप्ययुक्तम्: नित्यस्य व्यङ्ग्यत्वायोगात्। नित्यं हि वस्तु यदि व्यक्तं व्यक्तमेव, अथाव्यक्तमप्यशब्दार्थ सम्बन्ध को नित्य मानते हुए आपने उसके अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त भेद किये हैं अतः अनभिव्यक्त सम्बन्ध वाले शब्द का, जिसकी अभिव्यक्ति हो चुकी है- ऐसे शब्द के द्वारा सम्बन्ध की अभिव्यक्ति करनी होगी और उस पूर्व शब्द का भी किसी अन्य अभिव्यक्त सम्बन्ध वाले शब्द द्वारा सबंधाभिव्यक्त करना होगा। इस अनवस्था को दूर करने के लिये किसी एक शब्द की सम्बन्धाभिव्यक्ति स्वतः ही होती है- ऐसा मानते हैं तो दूसरे शब्द की सम्बन्धाभिव्यक्ति भी स्वतः हो सकती है। इसलिये फिर उसमें संकेत करना व्यर्थ ही हो जाता है अर्थात् शब्दार्थ का सम्बन्ध स्वतः ही अभिव्यक्त होता है तो उसके लिये वृद्ध पुरुषादि के द्वारा "यह घट है" इत्यादि रूप से बार बार संकेत क्यों किया जाता है? इस संकेत क्रिया से ही स्पष्ट होता है कि शब्दार्थ सम्बन्ध स्वतः अभिव्यक्त नहीं होता। यदि शब्दों में विभाग स्वीकार किया जाय कि 'अयम्' इत्यादि शब्द अभिव्यक्त सम्बन्ध वाला है और 'घटः' इत्यादि शब्द अनभिव्यक्त सम्बन्ध वाला है तो फिर सम्बन्ध को नित्य मानने की कल्पना ही व्यर्थ है। उस सम्बन्ध को यदि नित्य मानने का हठाग्रह हो तो संकेत ग्रहण के बिना भी शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है। ऐसा मीमांसक को स्वीकार करना होगा। ___149. शंका करते हुए मीमांसक का कहना है कि नित्य शब्द के सम्बन्ध को संकेत द्वारा व्यक्त किया जाता है अर्थात् संकेत उसका व्यंजक माना गया है? इस शंका पर जैन कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, नित्य प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 187
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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