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________________ भित्तिव्यपाये चित्रवत्। ततोऽयुक्तमुक्तम् नित्याः शब्दार्थसम्बन्धास्तत्राम्नाता महर्षिभिः । सूत्राणां सानुतन्त्राणां भाष्याणां च प्रणेतृभिः ॥” इति 3/101 147. सदृशपरिणामविशिष्टस्यार्थस्य शब्दस्य तदाश्रितसम्बन्धस्य चैकान्ततो नित्यत्वासम्भवात् । सर्वथा नित्यस्य वस्तुनः क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियासम्भवतोऽसत्त्वं चाऽश्वविषाणवत्। अनवस्थादूषणं चायुक्तमेव 'अयम्' इत्यादेः शब्दस्यानादिपरम्परातोऽर्थमात्रे प्रसिद्धसम्बन्धत्वात् तेनावगतसम्बन्धस्य घटादिशब्दस्य सङ्केतकरणात् । 148. नित्यसम्बन्धवादिनोपि चानवस्थादोषस्तुल्य एव-अनभिव्यक्तसम्बन्धस्य हि शब्दस्याभिव्यक्तसम्बन्धेन शब्देन सम्बन्धाभिव्यक्तिः कर्त्तव्या, 'महर्षियों ने शब्द और अर्थों के सम्बन्ध नित्यरूप स्वीकार किये हैं तथा सूत्र अनुतंत्र एवं भाष्यों का प्रणयन करने वाले पुरुषों ने भी शब्दार्थ सम्बन्ध को नित्य माना है । ' तथा सदृश परिणाम से विशिष्ट ऐसा अर्थ और शब्द के एवं उसके आश्रित रहने वाले सम्बन्ध के सर्वथा नित्यपना होना असम्भव ही है क्योंकि सर्वथा नित्य वस्तु में क्रम से अथवा युगपत् अर्थक्रिया का होना अशक्य है और अर्थक्रिया के अभाव में उस वस्तु का असत्त्व ही हो जाता है, जैसे अश्वविशाखा में अर्थक्रिया न होने से उसका असत्त्व है । शब्दार्थ सम्बन्ध को अनित्य माने तो अनवस्था दोष आता है- ऐसा मीमांसक का कहना तो अयुक्त ही है, क्योंकि “ अवम्” यह इत्यादि शब्द का अर्थमात्र में सम्बन्ध अनादि प्रवाह से चला आ रहा है, उस प्रसिद्ध सम्बन्ध द्वारा जिसका सम्बन्ध ज्ञात हुआ है ऐसे घट आदि शब्द में संकेत किया जाता है। अतः अनवस्था नहीं होती। 148 तथा शब्दार्थ में नित्य सम्बन्ध को स्वीकार करने वाले आप मीमांसकादि प्रवादी के यहाँ भी उक्त अनवस्था दोष समान रूप से संभावित है, कैसे? वह बताते हैं- शब्द को नित्य मानते हुए भी एवं 17. वाक्यपदीयम् 1/23 186 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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