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________________ 3/91-93 तत्र विधौ कार्यकार्यं कार्याविरुद्धोपलब्धौ अन्तर्भावनीयम् यथाअभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात्।।91॥ कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥92॥ शिवकस्य हि साक्षाच्छत्रक: कार्यं स्थासस्तु परम्परयेति। निषेधे तु कारणविरुद्धकार्यं विरुद्धकार्योपलब्धौ यथाऽन्तर्भाव्यते तद्यथा नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिशब्दनात् कारणविरुद्धकार्यं विरुद्धकार्योपलब्धौ यथेति ॥93॥ मृगक्रीडनस्य हि कारणं मृगः। तेन च विरुद्धो मृगारिः। तत्कार्य व्याघात नहीं होता। विधिरूप साध्य में कार्य कार्यरूप हेतु का कार्याविरुद्धोपलब्धि नामा हेतु में अन्तर्भाव होता है जैसे अभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात् ॥91॥ कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥92॥ सूत्रार्थ- इस कुम्भकार के चक्र पर शिवक नामा घट का पूर्ववर्ती कार्य हुआ है क्योंकि स्थासनामा कार्य उपलब्ध है। शिवक नामा मिट्टी के आकार का साक्षात् कार्य छत्रकाकार है और स्थास नामा कार्य परंपरारूप है। भावार्थ- कुम्भकार जब गीली चिकनी मिट्टी को घट बनाने में उपयुक्त ऐसे चक्र पर चढ़ाता है तब उसके क्रमशः शिवक, छत्रक, स्थास आदि नाम वाले आकार बनते जाते हैं, पहले शिवक, पीछे छत्रक और उसके पीछे स्थास आकार है अतः शिवक का साक्षात् कार्य तो छत्रक है और परंपरा कार्य स्थास है इसलिये यहाँ स्थास को कार्य कार्य हेतु कहा है। निषेध रूप साध्य के होने पर कारण विरुद्ध कार्य हेतु का विरुद्ध कार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है। जैसे नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिशब्दनात् कारणविरुद्धकार्यविरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥93॥ सूत्रार्थ- इस गुहा में हिरण की क्रीडा नहीं है, क्योंकि सिंह की प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 171
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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