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3/73-75 यथेत्युदाहरणप्रदर्शने। औष्ण्यं हि व्याप्यमग्नेः। स च विरुद्धः शीतस्पर्शेन प्रतिषेध्येनेति।
विरुद्धकार्यं लिङ्ग यथानास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् ॥73॥ विरुद्धकारणं लिङ्ग यथानास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥74॥
सुखेन हि प्रतिषेध्येन विरुद्धं दु:खम। तस्य कारणं हृदय शल्यम्। तत्कुतश्चित्तदुपदेशादेः सिद्धत्सुखं प्रतिषेधतीति। विरुद्धपूर्वचरं यथा
नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ॥75॥ सूत्रार्थ- यहाँ पर शीत स्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है।
सूत्रोक्त यथा शब्द उदाहरण का द्योतक है। औष्ण्य अग्नि का व्याप्य है वह प्रतिषेध्यभूत शीतस्पर्श के विरुद्ध है अतः हेतु व्याप्य विरुद्धोपलब्धि है।
विरुद्ध कार्य हेतु का उदाहरणनास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् ॥73॥
सूत्रार्थ- यहाँ पर शीत स्पर्श नहीं है, क्योंकि धूम है। विरुद्ध कारण हेतु का उदाहरण
नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥74॥
सूत्रार्थ- इस शरीरधारी प्राणी में सुख नहीं है, क्योंकि हृदय में शल्य है। प्रतिषेध्यभूत सुख के विरुद्ध दुःख है और उसका कारण हृदय शल्य है, उस हृदयशल्य का अस्तित्व किसी के कथन से जाना जाता है और उससे सुख का प्रतिषेध होता है।
विरुद्ध पूर्वचर हेतु का उदाहरणनोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ॥75॥
सूत्रार्थ- एक मुहूर्त के अनंतर रोहिणी का उदय नहीं होगा क्योंकि रेवती नक्षत्र का उदय हो रहा।
रोहिणी उदय के विरुद्ध अश्विनी का उदय है और उसका 160:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: