________________
3/67-68
122. तदप्यसारम्; शब्दोत्पत्तौ ताल्वादिसहाय- स्यैवात्मनो व्यापाराभ्युपगमात्। घटाद्युत्पत्तौ चक्रादिसहायस्य कुम्भकारादे- व्यापारवत्, कथमन्यथा घटादेरप्यात्मकार्यता? कार्यकार्यादेश्च कार्यहेता- वेवान्तर्भावः।
कारणलिङ्ग यथाअस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥67॥ कारणकारणादेरत्रैवानुप्रवेशान्नार्थान्तरत्वम्। पूर्वचरलिङ्ग यथाउदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥68॥ पूर्वपूर्वचराद्यनेनैव सङ्गहीतम्। उत्तरचरं लिङ्ग यथा
122. समाधान- यह कथन असार है, जैनों ने शब्द की उत्पत्ति में तालु आदि की सहायता से युक्त आत्मा को कारण माना है, जैसे घट आदि की उत्पत्ति में चक्रादि की सहायता से युक्त हुआ कुंभकार प्रवृत्ति करता है। शब्दादि की उत्पत्ति में आत्मा को कारण न मानो तो घट आदि की उत्पत्ति में आत्मा को कारण भी किस प्रकार मान सकते हैं? इस कार्य हेतु में ही कार्यकार्यहेतु का अन्तर्भाव होता है।
कारणहेतु का उदाहरणअस्त्यत्र छाया छत्रात् ।।67॥ सूत्रार्थ- यहाँ पर छाया है क्योंकि छत्र है।
कारण कारणहेतु का इसी हेतु में अन्तर्भाव होने से उसमें पृथक् हेतुत्व नहीं है।
पूर्वचर हेतु का उदाहरणउदेष्यति शकट कृतिकोदयात् ॥68॥
सूत्रार्थ- एक मुहूर्त बाद रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि कृतिका नक्षत्र का उदय हो रहा है। पूर्व पूर्वचर हेतु इसी में अन्तर्निहित हैं। उत्तरचर हेतु का उदाहरण
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 157