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________________ 3/66 किं पुनः कार्यलिङ्गस्योदाहरणमित्याह अस्त्यत्र शरीरे बुद्धिर्व्याहारादेः ||66 || 121. व्याहारो वचनम्। आदिशब्दाद्व्यापाराकारविशेषपरिग्रहः । ननु तालवाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायितया शब्दस्योपलम्भात्कथमात्मकार्यत्वं येनातस्तदस्तित्वसिद्धिः स्यात् ? न खल्वात्मनि विद्यमानेपि विवक्षाबद्धपरिकरे कफादिदोषकण्ठादिव्यापाराभावे वचनं प्रवर्त्तते; परिणामी है। कृतकपना परिणामी के साथ व्याप्त है। पूर्व आकार का परिहार और उत्तर आकार की प्राप्ति एवं स्थिति है लक्षण जिसका ऐसे परिणाम से जो शून्य है उस सर्वथा क्षणिक या नित्य पक्ष में शब्द का कृतकपना सिद्ध नहीं हो सकता। जाता है। कार्य हेतु का उदाहरण क्या है? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैंअस्त्यत्र देहिनि बुद्धिर्व्याहारादेः ॥166 || सूत्रार्थ इस प्राणी में बुद्धि है, क्योंकि वचनालाप आदि पाया 121. वचन को व्याहार कहते हैं आदि शब्द से व्यापार - प्रवृत्ति आकार विशेष ( मुख का आकार आदि) का ग्रहण होता है। किसी व्यक्ति के वचन कुशलता को देखकर बुद्धि का अनुमान लगाना कार्यानुमान है इसमें बुद्धि के अदृश्य रहते हुए भी उसका कार्य वचन को देखकर बुद्धि का सत्त्व सिद्ध किया जाता है। शंका- तालु कंठ आदि के अन्वय व्यतिरेक का अनुविधायी शब्द है, अर्थात् तालु आदि की प्रवृत्ति हो तो शब्द उत्पन्न होता है और न हो तो नहीं, इसलिये शब्द तो तालु आदि का कार्य है उसको आत्मा का (बुद्धि का कार्य किस प्रकार कह सकते हैं? जिससे कि वचनालाप से आत्मरूप बुद्धि का अस्तित्व सिद्ध हो, तथा आत्मा के विद्यमान होते हुए भी बोलने की इच्छा को रोकने वाले कफादिदोष के कारण कंठादि व्यापार के अभाव में वचन नहीं होते, अतः वचन को बुद्धि का कार्य न मानकर तालु आदि का कार्य मानना चाहिए? 156 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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