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________________ 3/64 118. न चास्वाद्यमानाद्रसात्सामग्रयनुमानं ततो रूपानुमानमनुमितानुमानादित्यभिधातव्यम्; तथा व्यवहाराभावात्। न हि आस्वाद्यमानाद्रसाद् व्यवहारी सामग्रीमनुमिनोति, रससमसमयस्य रूपस्यानेनानुमानात्। व्यवहारेण च प्रमाणचिन्ता भवता प्रतन्यते। प्रामाण्यं व्यवहारेण इत्यभिधानात्। सामग्रीतो रूपानुमाने च कारणात्कार्यानुमानप्रसङ्गाल्लिङ्गसंख्या व्याघातः स्यात्। से तदुत्पत्ति सम्बन्ध (उससे उत्पन्न होना रूप कार्यकारण सम्बन्ध) भी असम्भव है। जिनमें एक कालत्व होता है उनमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं होता जैसे गाय के दायें बायें सींग में नहीं होता, सहचारी साध्यसाधन में कालत्व है अतः तदुत्पत्ति नहीं हो सकती। 118. बौद्ध का जो यह कहना है कि आस्वादन में आ रहे रस से सामग्री का अनुमान होता है और उस सामग्री के अनुमान से रूप का अनुमान होता है अत: रूपानुमान अनुमितानुमान कहलाता है, सो वह असत् है क्योंकि उस प्रकार का व्यवहार देखने में नहीं आता। व्यवहारी जन आस्वाद्यमानरस से सामग्री का अनुमान नहीं करते अपितु रस के समकाल में होने वाले रूप का इसके द्वारा अनुमान होता है। आप भी व्यवहार के अनुसार प्रमाण का विचार करते हैं "प्रामाण्यं व्यवहारेण" ऐसा कहा गया है। दूसरी बात यह होगी कि यदि सामग्री से रूप का अनुमान होना स्वीकार करते हैं तो कारण से (सामग्री का अर्थ कारण है यह बात प्रसिद्ध ही है) कार्य का अनुमान होना सिद्ध होता है, फिर आपके हेतु की त्रिसंख्या का (कार्य हेतु स्वभाव हेतु और अनुपलब्धि हेतु) विघटन हो जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि पूर्वचर आदि कार्य हेतु में अन्तर्भूत नहीं होते। तथा यह भी सिद्ध हुआ कि कारण पूर्ववर्ती होता है एवं कारण कार्य में काल का व्यवधान नहीं होता। 1. प्रमाणवार्तिक 2/5 154:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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