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________________ ( v) करता है। यह पूरा ग्रन्थ प्रारम्भ से लेकर अन्त तक न्याय शैली से परिपूर्ण है। सबसे पहले पूर्वपक्ष में आचार्य प्रभाचन्द्र अन्य दार्शनिकों के सिद्धान्तों को रखते हैं फिर न्याय की कसौटी पर परख कर उत्तर पक्ष में युक्तिपूर्वक उनका समाधान कर देते हैं और जैनसिद्धान्त की प्रतिष्ठा करते हैं। 2. न्यायकुमुदचन्द्र आचार्य अकलंकदेव कृत 'लघीयस्त्रय' और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति की विस्तृत एवं विशद व्याख्या 'न्यायकुमुदचन्द्र' नामक रचना की है। यह ग्रन्थ न्यायरूपी कुमुदों (कमल-पुष्पों) को खिलाने के लिए चन्द्रमा है। इस विषय में आचार्य जयसेन ने ग्रन्थ की प्रशंसा में एक श्लोक लिखा है, जिसमें कहा है कि न्याय के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ आया करती हैं, उनको सुलझाने में, उनको स्पष्ट करने में यह ग्रन्थ चन्द्रमा के समान है। इस ग्रन्थ का आकार बीस हजार श्लोक प्रमाण है। जैन न्याय के मूर्धन्य विद्वान् डॉ. महेन्द्र कुमार जी जैन, न्यायाचार्य ने सर्वप्रथम इसका शोधपूर्ण संपादन किया है। इसके प्रथम भाग में 126 पृष्ठों में प्रस्तावना पण्डित कैलाशचन्द्र जी ने लिखी है तथा दूसरे भाग की प्रस्तावना 63 पृष्ठों में स्वयं डॉ. महेन्द्र कुमार जी जैन ने लिखी है। 3. तत्त्वार्थवृत्ति-पद-विवरण इस ग्रन्थ में आचार्य उमास्वामी-कृत 'तत्त्वार्थसूत्र' की आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित वृहत् टीका 'सर्वार्थसिद्धि' पर आचार्य प्रभाचन्द्र ने पदच्छेद करने का कार्य किया है। इससे उसको समझने में सरलता आ जाती है। 4. शब्दाम्भोजभास्कर यह ग्रन्थ आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर रची हुई 'भास्करवृत्ति' है। यह शब्द-सिद्धिपरक व्याकरण ग्रन्थ है। यह व्याकरण में आये हुए शब्दों की सिद्धि करने में सूर्य के समान होने से यथानाम तथा गुण है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से सहज ही सिद्ध हो जाता है कि
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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