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________________ 3/13 व्याप्तिः प्रत्यक्षात् प्रतीयते, अनुमानाद्वा? न तावत्प्रत्यक्षात्; तस्य सन्निहितमात्रगोचरतया देशादिविप्रकृष्टाशेषार्थालम्बनत्वानुपपत्तेः, तत्रास्य वैशद्यासम्भवाच्च। न खलु सत्त्वानित्यवादयोऽग्निधूमादयो वा सर्वे भावाः सन्निधानवत् प्रत्यक्षे विशदतया प्रतिभान्ति, प्राणिमात्रस्य सर्वज्ञतापत्तेरनुमानानर्थक्यप्रसङ्गाच्च। अविचारकतया चाध्यक्षं 'यावान् कश्चिद्धूमः स सर्वोपि देशान्तरे कालान्तरे वाग्निजन्माऽन्यजन्मा वा न भवति' इत्येतावतो व्यापारान् कर्तुमसमर्थम्। 50. पुरोव्यवस्थितार्थेषु प्रत्यक्षतो व्याप्ति प्रतिपद्यमानः सर्वोपसंहारेण प्रतिपद्यते; इत्यप्यसुन्दरम्; अविषये सर्वोपसंहारायोगात्। 51. प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्यापि तद्विषयमात्राध्यवसायत्वात् सर्वोप-संहारेण व्याप्तिग्राहकत्वाभावः, तथा चानिश्चितप्रतिबन्धकत्वाद्देशान्तरादौ साधनं साध्यं न गमयेत्। नहीं देते, यदि प्रतीत होते तो अशेष प्राणी सर्वज्ञ होने की आपत्ति आयेगी तथा अनुमान प्रमाण भी व्यर्थ ठहरेगा क्योंकि सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हो चुके हैं तो अनुमान की क्या आवश्यकता? तथा परमतानुसार प्रत्यक्षज्ञान निर्विकल्प होने से "जितना भी धूम है वह सब देशान्तर तथा कालान्तर में भी अग्नि से ही प्रादुर्भूव है अन्य से प्रादुर्भूत नहीं होता" इतने अधिक प्रतीति के कार्य को करने में असमर्थ है, वह तो केवल सामने उपस्थित हुए पदार्थों का ही ग्राहक है। 50. शंका- सामने उपस्थित पदार्थों में पहले प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्ति को ग्रहण कर लेते हैं और फिर क्रमशः सर्वोपसंहार रूप से ग्रहण करते हैं? समाधान- यह कथन असुन्दर है, जो अपना विषय नहीं है उस अविषय भूत पदार्थ में सर्वोपसंहार रूप से जानना अशक्य है। 51. प्रत्यक्ष के पश्चात् प्रादुर्भूत हुए विकल्प ज्ञान द्वारा व्याप्ति का ग्रहण होना भी असम्भव है, क्योंकि वह भी सन्निहित का ही ग्राहक है अतः सर्वोपसंहार से व्याप्ति का ग्राहक होना शक्य नहीं, इस तरह प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 99
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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