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________________ 3/5 कल्पितसम्बन्धविषयत्वेनास्याः विसंवादित्वे दृश्यप्राप्यैकत्वे प्राप्यविकल्प्यैत्वे च प्रत्यक्षानुमानयोरविसंवादो न स्यात्। तत्सम्बन्धस्य कल्पितत्वे च अनुमानमप्येवंविधमेव स्यात्। तथा च कथमतोऽभीष्टतत्त्वसिद्धिः? प्रत्यभिज्ञानप्रमाणविमर्शः अथेदानी प्रत्यभिज्ञानस्य कारणस्वरूपप्ररूपणार्थं दर्शनेत्याद्याहदर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम्। तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ॥5॥ 15. दर्शनस्मरणे कारणं यस्य तत्तथोक्तम्। सङ्कलनं विवक्षितधर्मयुक्तत्वेन प्रत्यवमर्शनं प्रत्यभिज्ञानम्। ननु प्रत्यभिज्ञायाः प्रत्यक्षप्रमाणस्वरूपत्वात् परोक्षरूपतयात्राभिधानमयुक्तम्; तथाहि प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञा अक्षान्वयव्यतिरेकानुविधानात् तदन्यप्रत्यक्षवत्। न च स्मरणपूर्वकत्वात्तस्याः प्रत्यक्षत्वाभावः; प्रत्यभिज्ञान प्रमाण विमर्श अब श्रीमाणिक्यनंदी आचार्य प्रत्यभिज्ञान का कारण तथा स्वरूप बतलाते हैं। दर्शन-स्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञान। तदेवेदं तत्सदृशं तत्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ॥5॥ सूत्रार्थ- प्रत्यक्ष दर्शन और स्मृति के द्वारा जो जोड़ रूप ज्ञान होता है उसको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। उसके “वही यह है" "यह उसके समान है" यह "उससे विलक्षण है" यह उसका प्रतियोगी है इत्यादि अनेक भेद हैं। 15. जिस ज्ञान में दर्शन और स्मरण निमित्त पड़ता है वह "दर्शन स्मरण कारणक" कहलाता है। संकलन का अर्थ विवक्षित धर्म से युक्त होकर पुनः ग्रहण होना है। यहाँ मीमांसक आपत्ति जताते हुये कहते हैं कि यह प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण रूप होने के कारण परोक्ष रूप से उसका कथन करना अयुक्त है,अन्य प्रत्यक्षों की तरह प्रत्यभिज्ञान का इन्द्रियों के साथ प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 81
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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