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13. न चाविसंवादकत्वं स्मृतेरसिद्धम् स्वयं स्थापित निक्षेपादौ तद्गृहीतार्थे प्राप्तिप्रमाणान्तरप्रवृत्तिलक्षणाविसंवादप्रतीतेः । यत्र तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा प्रत्यक्षाभासवत् । विसंवादकत्वे चास्याः कथमनुमानप्रवृत्तिः सम्बन्धस्यातोऽप्रसिद्धेः ? न च सम्बन्धस्मृतिमन्तरेणानुमानमुदेत्यतिप्रसङ्गात्।
14. किञ्च, सम्बन्धाभावात्तस्याः विसंवादकत्वम्, कल्पितसम्बन्धविषयत्वाद्वा सतोप्यस्याऽनयाविषयीकर्तुमशक्यत्वाद्वा ? प्रथमपक्षे कुतोऽनुमानप्रवृत्तिः ? अन्यथा यतः कुतश्चित्सम्बन्धरहिताद्यत्रक्वचिदनुमानं स्यात् ।
13. स्मृति का अविसंवादकपना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि स्वयं के द्वारा स्थापित किये निक्षेप (धन) आदि में उसके ग्रहण करने पर प्राप्तिरूप प्रत्यक्ष प्रमाणान्तर से स्मृति का अविसंवादकपना सिद्ध होता है। जहाँ विसंवाद होता है वहाँ स्मरणाभास कहलाता है जैसे- प्रत्यक्षाभास । यदि स्मृति को अप्रमाण मानते हैं तो अनुमान की प्रवृत्ति किस प्रकार होगी? क्योंकि स्मृति के अभाव में साध्य साधन के अविनाभाव सम्बन्ध की सिद्धि नहीं हो सकती । अविनाभावी सम्बन्ध की स्मृति हुए बिना अनुमान प्रमाण उदित ही नहीं हो सकता, अन्यथा अतिप्रसंग होगा।
14. बौद्ध स्मृति को विसंवादक मानते हैं सो उसका कारण क्या है ? साध्य - साधन के सम्बन्ध का अभाव है इसलिए ? अथवा कल्पित सम्बन्ध को विषय करने से, या सम्बन्ध के रहते हुए भी स्मृति द्वारा इसको विषय करना अशक्य होने से ? प्रथम पक्ष मानो तो अनुमान की प्रवृत्ति किससे होगी? बिना सम्बन्ध के अनुमान प्रवृत्ति करेगा तो जिस किसी सम्बन्ध रहित हेतु से जहाँ चाहे वहाँ प्रवृत्ति कर सकेगा। कल्पित सम्बन्ध को स्मृति विषय करती है अतः विसंवादक है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो भी ठीक नहीं क्योंकि इस तरह मानें तो दृश्य ( स्वलक्षण) और प्राप्य में एकत्व रूप कल्पित सम्बन्ध को विषय करने वाला प्रत्यक्ष प्रमाण तथा प्राप्य और विकल्प में एकत्वरूप कल्पित सम्बन्ध को विषय करने वाला अनुमान प्रमाण अविसंवादक नहीं रहेगा।
80 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः