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ज्ञानं स्मृतिः' इत्युच्यते ननु 'अनुभूते जायमानम्' इत्येतत् केन प्रतीयताम्? न तावदनुभवेन; तत्काले स्मृतेरेवासत्त्वात्। न चासती विषयीकर्तुं शक्या। न चाविषयीकृता 'तत्रोपजायते' इत्यधिगतिः। न चानुभवकालेऽर्थस्यानुभूततास्ति, तदा तस्यानुभूयमानत्वात्, तथा च 'अनुभूयमाने स्मृतिः' इति स्यात्।
6. अथ 'अनुभूते स्मृतिः' इत्येतत्स्मृतिरेव प्रतिपद्यते; न; अनयाऽतीतानुभवार्थयोरविषयीकरणे तथा प्रतीत्ययोगात्। तद्विषयीकरणे वा निखिलातीतविषयीकरणप्रसङ्गोऽविशेषात्। यदि चानुभूतता प्रत्यक्षगम्या स्यात्; तदा स्मृतिरपि जानीयात् 'अहमनुभूते समुत्पन्ना' इति अनुभवानुसारित्वात्तस्याः। न चासौ प्रत्यक्षगम्येत्युक्तम्।
7. इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्। स्मृतिशब्दवाच्यार्थस्य प्रागेव तरह से किसके द्वारा प्रतीत होगा? अनुभव द्वारा तो नहीं हो सकता, क्योंकि उस वक्त स्मृति का ही असत्व है, जो नहीं है उसको विषय नहीं कर सकते और अविषय के बारे में उसमें "उत्पन्न होती है" ऐसा निश्चय नहीं कर सकते। तथा वस्तु के अनुभवन काल में वस्तु की अनुभूतता नहीं होती किन्तु उस समय उसकी अनुभूयमानता होती है। जब ऐसी बात है तो अनुभूयमान में स्मृति होती है ऐसा मानना होगा।
6. "अनुभूत विषय में स्मृति होती है" इस बात का निश्चय तो स्वयं स्मृति ही कर लेती है- ऐसा कहो तो गलत है क्योंकि स्मृति के द्वारा अतीतार्थ और अनुभवार्थ का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वैसा प्रतीत नहीं होता है। तथा यदि स्मृति अतीतार्थ और अनुभवार्थ को ग्रहण करती है तो सम्पूर्ण अतीत विषयों को ग्रहण करने का प्रसंग आता है, क्योंकि उक्त विषय में अतीतपने की अविशेषता है। तथा यदि अनुभूतपना प्रत्यक्षगम्य होता तो स्मृति भी जान सकती है कि "मैं अनुभूत विषय में उत्पन्न हुई हूँ, क्योंकि स्मृति अनुभव के अनुसार हुआ करती है किन्तु अनुभूतता प्रत्यक्ष गम्य नहीं है। अतः स्मृतिज्ञान प्रमाणभूत सिद्ध नहीं होता
7. जैन- यह सारा कथन बिना सोचे किया है, स्मृति शब्द का वाच्यार्थ पहले ही बता चुके हैं कि “वह" इस प्रकार का प्रतिभास
प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 77