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________________ 2/11 व्यवस्थाकारिणी, अलमन्यकल्पनया। 33. स्वाकारार्पकत्वाभावाच्चेन्न; ज्ञाने स्वाकारार्पकत्वस्याप्यपास्तत्वात्। कथं च कारणत्वाविशेषेपि किञ्चित्स्वाकारार्पकं किञ्चिन्नेति प्रतिनियमो योग्यतां विना सिध्येत्? कथं च सकलं विज्ञानं सकलार्थकार्यं न स्यात्? है तो उसी योग्यता को ही क्यों न माना जाय? फिर तो योग्यता ही प्रतिकर्म व्यवस्था करती है ऐसा स्वीकार करना ही श्रेष्ठ है, व्यर्थ की तदुत्पत्ति आदि की कल्पना करना बेकार है। 33. बौद्ध- इन्द्रियों से ज्ञान उत्पन्न तो अवश्य होता है किन्तु इन्द्रियाँ अपना आकार ज्ञान में अर्पित नहीं करती अतः ज्ञान उनको नहीं जानता। जैन- यह कथन ठीक नहीं है, ज्ञान में वस्तु का आकार आता है इस मत का पहले सयुक्तिक खण्डन कर चुके हैं। आप बौद्ध को कोई पूछे कि इन्द्रिय और पदार्थ समान रूप से ज्ञान में कारण होते हुए भी पदार्थ ही अपना आकार ज्ञान में देता है इन्द्रियाँ नहीं देती ऐसा क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर आप योग्यता कहकर ही देते हैं अर्थात् कारण समान रूप से है किन्तु पदार्थ ही अपना आकार ज्ञान में देते हैं इन्द्रियाँ नहीं देतीं, क्योंकि ऐसी ही उनमें योग्यता है, तथा सभी ज्ञान अविशेषपने से सभी पदार्थों का कार्य क्यों नहीं होता? इत्यादि प्रश्न होने पर आपको यही कहना होगा कि पदार्थों में प्रतिनियत शक्ति होती है तब सबके कारण या कार्य नहीं हो सकते, ठीक इसी तरह ज्ञान के विषय में समझना चाहिये, ज्ञान में जिस विषय को जानने की शक्ति अर्थात् ज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की अपेक्षा यहाँ पर जगह-जगह क्षयोपशम शब्द का प्रयोग हुआ है) उसी विषय को ज्ञान जानता है, उसी ग्राह्य वस्तु का ज्ञान ग्राहक बनता है- ऐसा निर्दोष सिद्धान्त स्वीकार करना चाहिये। अब यहाँ पर मुख्य प्रत्यक्ष के उत्पत्ति का कारण तथा स्वरूप सूत्र द्वारा प्ररूपित किया जाता है 70:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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