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2/10 ज्ञानार्थयोरपि स्वसामग्रीविशेषवशादुत्पन्नयोः परस्परापेक्षया ग्राह्यग्राहकत्वधर्मव्यवस्थाऽऽस्थीयताम्। कृतं प्रतीत्यपलापेन।
28. ननु चाजनकस्याप्यर्थस्य ज्ञानेनावगतौ निखिलार्थावगतिप्रसङ्गात्प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यात्। 'यद्धि यतो ज्ञानमुत्पद्यते तत्तस्यैव ग्राहक नान्यस्य' इत्यस्यार्थजन्यत्वे सत्येव सा स्यादिति वदन्तं प्रत्याह
स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति ॥10॥
29. तथा हि-यदर्थप्रकाशकं तत्स्वात्मन्यपेतप्रतिबन्धम् यथा प्रदीपादि, चाहिए? अब तो प्रतीति के अपलाप बन्द कर दीजिए।
28. शंका- ज्ञान का अजनक ऐसा जो पदार्थ है वह ज्ञान द्वारा जाना जाता है ऐसा मानेंगे तो एक ही ज्ञान सम्पूर्ण पदार्थ जानने वाला सिद्ध होगा फिर प्रतिनियत विषम व्यवस्था नहीं बन सकेगी, क्योंकि जो ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है वह उसी को जानता है अन्य को नहीं ऐसी प्रतिकर्म व्यवस्था (यह इस ज्ञान का विषय है) तो ज्ञान को पदार्थ से जन्य मानने पर ही हो सकती है? ज्ञान के विषय की कर्माधीन व्यवस्था
अब इस शंका का निवारण करते हुए श्री माणिक्यनन्दी आचार्य कहते हैं
स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यता हि प्रतिनियतमर्थंव्यवस्थापयति on
सूत्रार्थ- अपने आवरण (अर्थात् ज्ञानावरणी कर्म) के क्षयोपशम रूप योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रतिनियत विषय की व्यवस्था करता है।
29. अपने ज्ञानावरणी, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम रूप योग्यता के निमित्त से प्रतिनियत पदार्थ को जानने का नियम बनता है, जो जिस वस्तु का प्रकाशक होता है। वह अपने आवरण के रुकावट से रहित होता है, जैसे दीपक आवरण रहित होकर घट आदि का प्रकाशक
66:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: