SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2/9 प्रदीपवत् ॥9॥ 26. न खलु प्रकाश्यो घटादिः स्वप्रकाशक प्रदीपं जनयति स्वकारणकलापादेवास्योत्पत्तेः प्रकाश्याभावे प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वायोगात्सतस्य जनकएव इत्यभ्युपगमे प्रकाशकस्याभावे प्रकाशस्यापि प्रकाश्यत्वाघटनात् सोपि तस्य जनकोऽस्तु तथा चेतरेतराश्रयः प्रकाश्यानुत्पत्तौ प्रकाशकानुत्पत्तेः, तदनुत्पत्तौ च प्रकाश्यानुत्पत्तेरिति । 27. स्वकारणकलापादुत्पन्नयोः प्रदीपघटयोरन्योन्यापेक्षया प्रकाश्यप्रकाशकत्वधर्मव्यवस्थाया एव प्रसिद्धेर्नेतरेतराश्रयावकाश इत्यभ्युपगमे 26. यहाँ आपत्ति करते हुये कहते हैं कि प्रकाशित होने योग्य घटादि पदार्थ अपने को प्रकाशित करने वाले दीपक को उत्पन्न करते हैं, वह दीपक तो अपने कारणों से (बत्ती, तेल आदि से) उत्पन्न होता है। प्रकाशित करने योग्य वस्तु के अभाव में प्रकाश का प्रकाशपना ही नहीं रहता, अतः प्रकाश्य जो घटादि वस्तु है वह उस प्रकाशक का जनक कहलाता है। इसका समाधान करते हुये आचार्य कहते हैं कि तब तो इसके विपरीत " प्रकाशक के अभाव में प्रकाश्य का प्रकाश्यपना ही नहीं रहता, अतः प्रकाशक (दीप) प्रकाश्य (घटादि) का जनक है" ऐसा भी मानना पड़ेगा? फिर तो इतरेतराश्रय दोष होगा, अर्थात् प्रकाश्य के उत्पन्न न होने पर प्रकाशक उत्पन्न नहीं होगा और उसके उत्पन्न नहीं होने से प्रकाश्य भी उत्पन्न नहीं होगा। 27. नैयायिक प्रकाशक ( दीप) और प्रकाश्य (घटादिवस्तु) ये दोनों भी अपने अपने कारण कलाप से उत्पन्न होते हैं और एक दूसरे की अपेक्षा से प्रकाशक तथा प्रकाश्य कहलाते हैं, प्रकाशक और प्रकाश्य धर्म की व्यवस्था तो इस प्रकार है अतः इतरेतराश्रय दोष नहीं आता। जैन- बिलकुल ठीक है यही बात ज्ञान और पदार्थ के विषय में है, ज्ञान और पदार्थ भी अपनी अपनी सामग्री से उत्पन्न होते हैं और एक दूसरे की अपेक्षा लेकर ग्राह्य ग्राहक कहलाते हैं ऐसा स्वीकार करना प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:: 65
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy