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अहिंसा दर्शन माँसाहार का त्याग कर दिया था। धौलपुर राज्य के एक गाँव में एक व्यक्ति ने इन पर प्राणघातक हमला किया, पुलिस द्वारा पकड़ लिये जाने पर भी आपने उसे माफ करने को कह दिया था। आचार्य शान्तिसागरजी के अहिंसक प्रयोगों के ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
इस प्रकार आचार्य शान्तिसागर मुनिराज, संयम साधना की उत्कृष्ट भूमिका में सम्पूर्ण भारतवर्ष में शान्ति, अहिंसा, त्याग और संयम का सन्देश फैलाते रहे। आप दिगम्बर जैनधर्म में मुनिराजों के लिए निर्धारित नियमों का, जैसे चौबीस घण्टे में एक समय अन्न-जल ग्रहण करना, हाथ में शुद्धि के लिए एक कमण्डलु तथा सूक्ष्म जीवों के रक्षार्थ अहिंसा धर्म के पालन के लिए एक पीछी (मोरपंखों द्वारा निर्मित) रखना; कहीं बैठने, उठने, लेटने तथा कोई शास्त्र रखने उठाने से पहले पीछी द्वारा उस स्थान को साफ करना ताकि इन क्रियाओं से सूक्ष्म जीवों की भी हिंसा न हो, हिंसा से बचने के लिए चार हाथ आगे की जमीन देखकर कदम बढ़ाना ताकि जमीन पर चलने वाले छोटे जीव पैरों से दबकर न मर जाएँ आदि का, वे कड़ाई से पालन करते थे। जीवन में अहिंसा को जीने का इतना उत्कृष्ट स्वरूप दिगम्बर जैन मुनिराजों के अतिरिक्त कहीं भी देखने को नहीं मिलता। आचार्य भिक्षु और अहिंसा
श्वेताम्बर जैन परम्परा में आचार्य भिक्षु का उदय एक नये आलोक की सृष्टि है। उनका जन्म विक्रम संवत् 1783 को हुआ था। विक्रम संवत् 1808 में उन्होंने स्थानकवासी मुनि-दीक्षा स्वीकार की। विक्रम संवत् 1817 में तेरापन्थ का प्रवर्तन किया और विक्रम संवत् 1860 को उनका देवलोकगमन हो गया।
आचार्य भिक्षु, अहिंसा विषयक सूक्ष्म चिन्तन रखते हैं। उनका कहना है कि जीवरक्षा अहिंसा का परिणाम है, उद्देश्य नहीं। जीवरक्षा अहिंसा का परिणाम हो सकता है परन्तु अहिंसा से जीवरक्षा होती ही है - ऐसी बात नहीं। नदी के जल से भूमि उपजाऊ हो सकती है, पर नदी इस उद्देश्य से बहती है - यह नहीं कहा जा सकता।