________________
सप्तम अध्याय
दी। आचार्य कुन्दकुन्ददेव के महान् आध्यात्मिक ग्रन्थ 'समयसार' के वे अनन्य उपासक थे, उन्होंने धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों का भी बहुत अभ्यास किया। समाप्त प्राय दिगम्बर साधना को आपने पुनर्जीवित किया। आचार्य शान्तिसागर मुनिराज के कुछ वचन-बिन्दु - (1) धर्मस्य मूलं दया। जिनधर्म का मूल क्या है? - सत्य, अहिंसा। मुख
से सभी सत्य, अहिंसा बोलते हैं, पालते नहीं। रसोई करो, भोजन करो। ऐसा कहने से क्या पेट भरेगा? - सब कार्य छोड़ो, सत्य-अहिंसा का पालन करो। सत्य में सम्यक्त्व आ जाता है। अहिंसा में किसी जीव को दुःख नहीं दिया जाता; अत: संयम होता है, यह व्यवहारिक बात है। इस व्यवहार का पालन करो। सम्यक्त्व धारण करो, संयम धारण करो,
तब आपका कल्याण होगा। इसके बिना कल्याण नहीं होगा।' (2) जिस समय जो भवितव्य है, उसे कोई भी अन्यथा नहीं परिणमा
सकेगा, किन्तु हमारा निश्चय का एकान्त नहीं है; दूसरों के दुःख दूर
करने का विचार करुणावश है। (3) आगम के मार्ग को छोड़कर जाने से तथा मनमाने रूप से प्रवृत्ति करने
से सिद्धि नहीं मिलती। जैसे, मार्ग छोड़कर उल्टे रास्ते जाने वालों को इष्ट ग्राम की प्राप्ति नहीं होती; उसी प्रकार मोक्षनगर को जाने के लिए
अहिंसा का मार्ग अङ्गीकार करना आवश्यक है। (4) हिंसा आदि पापों का त्याग करना धर्म है, इसके बिना विश्व में कभी
भी शान्ति नहीं हो सकती। इस धर्म का लोप होने पर सुख तथा आनन्द का लोप हो जाएगा।
आपके अहिंसक जीवन को देखकर तथा प्रवचनों से प्रभावित होकर कटनी (म0प्र0) के पास बिलहरी गाँव के कई हरिजनों ने आजीवन 1. चारित्रचक्रवर्ती, पृष्ठ 550 2. वही, पृष्ठ 345 3. पृष्ठ 338
पृष्ठ 166