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षष्ठ अध्याय
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स्वतन्त्रता का परिणाम, भारत-पाकिस्तान विभाजन के रूप में बहुत दुःखदायी रहा। इस घटना ने गाँधीजी को हिला कर रख दिया। स्वतन्त्रताप्राप्ति से ठीक पाँच माह पन्द्रह दिन बाद, सत्य-अहिंसा-अपरिग्रह की मूर्ति को उनके ही एक सहधर्मी ने 30 जनवरी 1948 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी, लेकिन मृत्युशैया पर भी उस महामानव के मुख से 'हे राम' ही निकला।
लुई फिशर के शब्दों में - "एक साधारण नागरिक, जिसके पास न धन था, न सम्पत्ति, न सरकारी उपाधि, न सरकारी पद, न विशेष प्रशिक्षण योग्यता, न वैज्ञानिक सिद्धि और न कलात्मक प्रतिभा, फिर भी ऐसे लोगों ने, जिनके पीछे सरकारें और सेवाएँ थीं, इस 78 वर्षीय लँगोटधारी साधारण आदमी को श्रद्धाञ्जलियाँ भेंट की।"
गाँधी के देहावसान पर भारत को सम्पूर्ण विश्व से समर्पित 3441 श्रद्धाञ्जलियाँ आयीं। क्या यह इस बात का सबूत नहीं कि विश्व के हर हिस्से ने गाँधीजी द्वारा अपनाए गए जीवन-मूल्यों को स्वीकारा था?
गाँधीजी की 75वीं वर्षगाँठ के अवसर पर विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने जो उद्गार व्यक्त किये थे, वे आज समीचीन प्रतीत होते हैं - "आनेवाली पीढ़ियाँ शायद ही विश्वास कर सकेंगी कि गाँधी जैसा हाड़-माँस का पुतला, कभी इस भूमि पर पैदा हुआ था।" अहिंसा के प्रयोग आवश्यक क्यों?
आज गाँधीजी सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हैं। आप विदेशों में जाकर कहीं भाषण दे रहे हों और अपने भाषण में गाँधीजी के नाम और सिद्धान्तों का प्रयोग करें तो लोग आज भी और अधिक ध्यान लगाकर आपकी बात सुनने लग जाएँगे। सुप्रसिद्ध लेखक रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं कि "संसार का ध्यान गाँधीजी की ओर इसलिए आकृष्ट हुआ कि उन्होंने पशु-बल के समक्ष आत्म-बल का शस्त्र निकाला, तोपों और मशीनगनों का सामना करने के लिए अहिंसा का आश्रय लिया।"