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अहिंसा दर्शन
गांधी जी में प्रभाव से ज्यादा खिचाव था जिसके कारण देश तथा विदेशों के हिन्दु, जैन, बौद्ध, मुसलमान, ईसाई, यदूदी, पारसी तथा हर जाति वर्ग के लोग उनसे जुड़े रहना पसन्द करते थे ।
'मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है'- कहने वाले महात्मा गाँधी जी की आत्मा इतनी निर्मल और पारदर्शी थी कि उन्हें पढ़कर और अपनाकर आज भी हर व्यक्ति यही समझता है कि उसके खुद को पा लिया है।
आज भी गाँधी जी का दर्शन उनके लेखों या पुस्तकों में उतना नहीं है, क्यों कि इन्हें पढ़ने वाले लोगों की संख्या ज्यादा नहीं है। फिर भी एक गरीब किसान, अनपढ़ मजदूर और आज भी समाज से उपेक्षित वर्ग यदि गाँधी जी को अपने पास पाता है, एक उद्योगति, एक राजनेता, एक अधिकारी और एक साधु भी यदि अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए गाँधी जी का नाम लेता है तो उसके पीछे सिर्फ गाँधी जी की निःस्वार्थ सेवा और निश्छल जीवन ही है और इससे बढ़कर कुछ नहीं ।
गाँधीजी का स्वतन्त्रता आन्दोलन
गाँधीजी के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आन्दोलनों का दौर प्रारम्भ हुआ। 1920 में 'सत्याग्रह आन्दोलन' के माध्यम से गाँधीजी ने चम्पारन, बिहार और गुजरात के किसानों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। इसके बाद भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में गाँधीजी ने सतत सक्रिय योगदान दिया । सविनय अवज्ञा, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो, आमरण अनशन इत्यादि अनेक आन्दोलनों के माध्यम से ब्रिटिश शासन की उन्होंने नींव हिला दी।
इस स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान अनेक बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा व कदम-कदम पर अंग्रेजों से अपमानित होना पड़ा किन्तु इन सब घटनाओं में उन्होंने अपने आपको सत्य और अहिंसा की जीती-जागती जीवन्त मूर्ति सिद्ध किया। सत्य और अहिंसा के एक ही शस्त्र के प्रयोग से उन्होंने तीस करोड़ भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँधकर अन्ततः 15 अगस्त 1947 को भारतवर्ष को स्वतन्त्र करा दिया।