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चतुर्थ अध्याय
65 बहुत पुरानी कहावत है - 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।' मनुष्य अण्डा-माँस खाएगा, मद्यपान करेगा तो उसकी मानसिकप्रवृत्ति भी हिंसक होगी। मनुष्य से ही परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व निर्मित होता है। मनुष्य का चरित्र गिरेगा तो वह हिंसक होगा, फिर इसका प्रभाव परिवार, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण विश्व पर भी पड़ेगा तथा जब विश्व हिंसक बनेगा तो उसका प्रभाव मानव-जीवन और उसके अस्तित्व पर भी अवश्य पड़ेगा।
मानव की अस्मिता को सुरक्षित रखने के लिए हर हाल में हमें उसके मूलधर्म 'अहिंसा' की चेतना को जीवित रखना होगा, क्योंकि अहिंसा रहेगी तो अस्तित्व रहेगा; अन्यथा विनाश को कोई रोक नहीं सकेगा।
हिंसा और उसके दुष्परिणामों को देखकर यह बात अब अन्ताराष्ट्रिय स्तर पर की जाने लगी है कि यह विश्व प्राकृतिक दृष्टि से अखण्ड है। प्रत्येक जीवधारी उस अखण्डता का एक अविभाजित भाग है। किसी भी एक भाग को कष्ट होगा तो उसका सूक्ष्म दुष्प्रभाव सभी जीवधारियों पर पड़ेगा। अभी पर्यावरण के स्तर पर यह बात स्वीकार की जाने लगी है। विश्व की इस आन्तरिक व्यवस्था को अभी तक सिर्फ अध्यात्म समझ रहा था किन्तु विज्ञान भी इस तथ्य को समझने लगा है।
___अहिंसा की दृष्टि सभी जीवधारियों को समान दृष्टि से देखती है। आज अहिंसा के स्वर को मात्र शास्त्रों के आधार पर प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता, उसके लिए हमें अनेक तर्क जुटाने होंगे। इस काम में विज्ञान हमारी मदद कर सकता है।