________________
अहिंसा दर्शन
हम अपने संसाधनों के विकास के लिए निरन्तर वृक्षों को काट रहे हैं, पर्वतों को उखाड़ रहे हैं, जङ्गलों को नष्ट कर रहे हैं, प्रकृति का उपयोग करने की जगह उसका दोहन कर रहे हैं। यह कार्य सम्पूर्ण विश्व में चल रहा है। पहले हम इस विषय पर चिन्तन करना अनावश्यक समझते थे किन्तु अब उसके दुष्परिणाम प्राकृतिक प्रकोप, मानसून असन्तुलन, ओजोन छिद्र, और ग्लोबल वार्मिंग के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। आज हम इस विषय पर सोचने लगे हैं, ये सब वे कार्य हैं, जिन्हें हम हिंसा मानते ही नहीं थे।
पर्यावरण को सन्तुलित रखने वाले जानवरों और पशु-पक्षियों को भोजन की वस्तु बनाया जा रहा हैं, जीभ के स्वाद के लिए निरीह, मूक जीवों का कत्ल किया जा रहा है। मांस निर्यात हुत् रोज नये नये कत्लकारखाने खुल रहे हैं। यहाँ प्रश्न है, इतने विशाल स्तर पर होने वाली जीवहिंसा तथा जीवों के करुण क्रन्दन और चीखों का असर हमारे पर्यावरण पर पड़े बिना कैसे रह सकता है? टाइम्स ऑफ इण्डिया के सम्पादकीय पृष्ठ पर एक ब्रिटिश रिसर्च के परिणाम प्रकाशित हुए हैं, जिसमें यह सिद्ध किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग (निरन्तर बढ़ते हुए तापमान) के लिए ये बूचड़खाने और माँसाहार जिम्मेदार हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी के तीन प्राध्यापकों डॉ. मदनमोहन बजाज, डॉ. इब्राहीम तथा डॉ. विजयराज सिंह ने स्पष्ट गणितीय वैज्ञानिक गवेषणाओं के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दुनिया भर में होने वाली समस्त प्राकृतिक आपदाओं- सूखा, बाढ़, भूकम्प, चक्रवात का कारण हिंसा और हत्याएं हैं।
गरीबों का शोषण एवं गर्भपात जैसी हिंसा से भी हम पाप के भागीदार तो बन ही रहे हैं, साथ ही अपने पर्यावरण को प्रदूषित करके वातावरण को हिंसक बना रहे हैं, जिसका सीधा असर मनुष्य की सुखशान्ति पर पड़ता है। मनुष्य जैसा खाएगा, वैसा ही सोचेगा।
1. 2.
1-May-2007; Times of India तुलसी प्रज्ञा, जनवरी-2002, पृ. 44