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चतुर्थ अध्याय
1. कर्मों का उदय और 2. दूषित आभामण्डल। चेतना के स्तर पर हिंसा के अनेक आन्तरिक कारण हैं -
1. मिथ्या दृष्टिकोण, 2. निषेधात्मक दृष्टिकोण, 3. वैचारिक आग्रह, 4. मानसिक तनाव, 5. भावनात्मक तनाव, 6. संग्रह की वृत्ति, 7. मानसिक चञ्चलता का अतिरेक, 8. अहंभाव, 9. हीनभाव आदि।
हिंसा के अनेक कारण हैं और कार्य एक है। इस तरह हिंसा इसलिए व्यापक है, क्योंकि उसके कारण अनेक हैं। गरीब समाज में गरीबी को हिंसा का कारण कहा जाता है, किन्तु भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण अमेरिका जैसे अमीर राष्ट्रों में भी अनेक हत्याएँ रोज होती हैं। इसीलिए अमीरी भी, गरीबी से भी ज्यादा खतरनाक हो जाती है। इन सभी बातों का निष्कर्ष यह है कि वर्तमान में हिंसा की जड़ें इतनी गहरी और फैली हुई हैं कि उसका एक भाग उखाड़कर फेंक देने पर भी हिंसा का वृक्ष पूर्णत: उन्मूलित नहीं हो रहा है।
हिंसा के पक्ष में गलत तर्क -
भारतीय इतिहास में जब हिंसा अत्यन्त व्यापक हो गई और कुछ विकृत साधु-संन्यासी भी हिंसक होकर माँसाहार तक करने लगे, तब इन्द्रियलोलुपी मनुष्यों ने अपनी इस करनी और बुराई को तर्क के आधार पर उचित ठहराना प्रारम्भ कर दिया। धर्म-ग्रन्थों में भी हिंसा के समर्थन में प्रसङ्ग जोड़े जाने लगे; अर्थ का अनर्थ किया गया। हिंसा को पुण्य और धर्म तक से जोड़ने के प्रयास हुए।
ग्यारहवीं शती में आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा के इन गलत तर्कों के सटीक उत्तर पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक ग्रन्थ में दिए हैं।' हिंसा के पक्ष में दिए जाने वाले कुतर्कों का उल्लेख यहाँ आवश्यक है - 1. देवताओं के लिए हिंसा करने से वे प्रसन्न होते हैं।
1.
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 79 से 89