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तृतीय अध्याय
तथा
ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयंति सुमेधसः। तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते।।
अर्थात् रात्रि भोजन नरक का प्रथम द्वार है तथा जो रात्रि में आहार नहीं करते उन्हें महीने में 15 दिन के उपवास का फल मिल जाता है।
स्कन्द पुराण के अनुसार दिन में भोजन करने वाला तीर्थ यात्रा के जैसा फल पा लेता है
"अनस्तभोजिनो नित्यं तीर्थ यात्रा फलं भजेत्"।
इस प्रकार रात्रि का भोजन सिर्फ धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अहिंसा के अनुकूल नहीं है। 4. लोकोपकारी कार्य -
जीव-कल्याण और समाज-सेवा की भावना से अहिंसाधर्म के लिए अनेक लोकोपकारी कार्य करने चाहिए। जैसे, निर्धनों को वस्त्र आदि
देना, जनता की सेवार्थ चिकित्सालय खोलना, धर्मशाला बनवाना, शिक्षा के लिए विद्यालय खोलना, गोशाला तथा पशु-पक्षी चिकित्सालय का सञ्चालन करना, समाज में व्यसन-मुक्ति हेतु कार्य करना, आदि आदि। जैनधर्म के अनुयायी, इन सब कार्यों को जीव-दया की दृष्टि से करते हैं। उनके ये कार्य सिर्फ जैनों के लिए ही नहीं हैं, वरन् सभी मनुष्यों के लिए हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के हों। सहृदय अहिंसक भावना वाला गृहस्थ मनुष्य, मानव सहित सभी जीवों के हित के लिए जितना कर सकता है, उतना कार्य अवश्य करना चाहिए। निःस्वार्थभाव से किए गए इन कार्यों से सामाजिक सौहार्द बढ़ता है और सम्पूर्ण विश्व, शान्ति की ओर बढ़ता है।
इस प्रकार और भी अनेक नियम व कार्य हैं, जो जैनधर्म की अहिंसाभावना को प्रगट करते हैं। यहाँ अहिंसा, सिर्फ सिद्धान्त के रूप में ही