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अहिंसा दर्शन
जिसका जीवन सुख के सागर में निमग्न है, वह भी जीना चाहता है
और दुःख दावाग्नि में जिसका जीवन सुलग रहा है, वह भी जीना चाहता है। जब यह मानव अपनी आत्मा के समान अन्य प्राणियों को समझता है तो वह हिंसा जैसे निकृष्टतम कृत्य को कैसे कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता। इस प्रकार जैनधर्म के अनुसार द्रव्य दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं। जीवों के प्रकार और अहिंसा
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जैनधर्म के अनुसार संसार के समस्त प्राणी 'त्रस' और 'स्थावर' के रूप में दो प्रकार के हैं । स्वतः जो चल-फिर नहीं सकते ऐसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति, ये पाँच स्थावर या स्थिर जीव हैं, इनमें मात्र एक 'स्पर्शन-इन्द्रिय' ही होती है। इनके अतिरिक्त जो स्वयं चलते-फिरते दिखायी देते हैं, वे सब त्रस या जङ्गम जीव हैं, ये दो इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय वाले होते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणुओं से लेकर जलचर, नभचर और थलचर, पशु-पक्षी, मनुष्य, नारकी और देव आदि सृष्टि के समस्त प्राणी, इस त्रस या जङ्गम की परिभाषा के अन्तर्गत आते हैं।
गृहस्थ व्यक्ति को अपना जीवन निर्वाह करने के लिए जो कार्य करने पड़ते हैं, उनमें स्थावर जीवों की हिंसा निरन्तर होती ही रहती है, वह लौकिक जीवन की अनिवार्यता है; अतः उसके सर्वथा त्याग का उपदेश नहीं दिया गया है। इतनी अपेक्षा अवश्य की गई है कि अहिंसा का आदर करने वाले व्यक्ति के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि का भी यत्नाचारपूर्वक उपयोग किया जाए, उसका आचरण करने से इन स्थावर जीवों का भी निरर्थक विनाश नहीं होगा और इससे पर्यावरण भी सुरक्षित एवं सन्तुलित रहेगा। यदि हमारी असावधानी, लापरवाही या प्रमादवश इन स्थावर जीवों का भी आवश्यकता से अधिक घात होता है तो वह अपराध माना जाता है आज पर्यावरण प्रदूषण और असन्तुलन की समस्या का भी यह मूलभूत कारण है कि हमने इन स्थावर जीवों का आवश्यकता से अधिक दोहन किया
है ।
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संसारिणस्त्रसस्थावरा: । त० सू० 2/12